में प्रकाशित किया गया था कवितायेँ

पुण्यभूमि भारत हूं…..

हूं अनन्त मैं इस दुनियां में, नहीं कोई परिमाण मेरा
सदैव सजग रहता हूं मैं, अमर है ईमान मेरा।
अध्यात्म मेरा जीवन है, इसमें ही है शान मेरा
सकल ज्ञान का उद्गाता हूं, हिंदुस्थान है नाम मेरा॥

सर्वप्रथम उदित हुआ, मैं ऐसा ज्ञान का सूरज हूं
त्याग, कृपा, आशीष हूं, मैं ममता की मूरत हूं।
मानवता का चिंतक हूं, सद्कर्म का मैं कारक हूं
सकल प्राणियों का आश्रय, मैं पुण्यभूमि भारत हूं॥

आयुर्वेद गणित विज्ञान का जनक, चरक आर्यभट्ट भास्कर हूं।
कला संगीत नृत्य का प्रणेता, काव्य का मैं अक्षर हूं।
स्वाति बूंद सदा जिसमें समाये, ऐसा ही मैं सीप हूं।
अंधकारमय ये दुनिया है, ज्योतिपूंज मैं दीप हूं॥

सब रहते आंचल में मेरे, मुझमें ही सब पले-बढे।
धर्म के रक्षण हेतु, असंख्य वीर रण में लढें।
सद्कर्मी, वीर सज्जनों को, याद किये मैं जाता हूं।
मैं अखंड राष्ट्रपुरुष हूं, सकल संसार की माता हूं॥

दुष्ट दुर्जन महिषासुर जब भी अत्याचार करता है,
आतंकवादी बनकर श्रद्दास्थानों को विध्वंस करता है।
तब उन अत्याचारी दुर्जनों का, सदा ह्रास मैं करती हूं,
मैं सिंहवाहिनी दुर्गा हूं, दानवों का विनाश करती हूं॥

देवगण जहां प्रसुनों की माला नित चढ़ाते हैं,
अभ्रस्पर्शी ध्वज के आगे सूरवीर भी शीश झुकाते हैं।
जन्म जहां पाने को देवता भी तरस जाते हैं,
आत्मीयता से सारे कवि जिसके लिये गीत गाते हैं॥

वंदनीय हूं, पूजनीय हूं, अधर्म विनाशिनी अम्बा हूं,
वेदधारिणी, जगदतारिणी, रिपुदलवारिणी जगदम्बा हूं।
धर्म हूं, ज्ञान हूं, अर्थ हूं, मैं ही सत्य का स्मारक हूं,
सकल विश्व का शान्तिप्रदाता, मैं मोक्षदायिनी भारत हूं॥

पुण्यभूमि भारत हूं… धर्मभूमि भारत हूं…
त्यागभूमि भारत हूं… वीरभूमि भारत हूं…
                                                             – लखेश्वर चंद्रवंशी ‘लखेश’


में प्रकाशित किया गया था कवितायेँ

विवेकानन्द शिलास्मारक

समुद्री लहरों के तेज थपेडे खाकर

मां का चरण सन्यासी का नमन पाकर

भारत को देखते

निर्भय बना हुआ है

नमन करता भारत मां के

चरणों में खडा हुआ है ।

विवेकानन्द शिलास्मारक

सुनों ! क्या बता रहा है ?

त्याग और सेवा ही साधना है ,

समर्पण का हमें मार्ग दिखा रहा है ।

यहां जो भी आता है , विस्मय विमुग्ध हो जाता है ।

अहंकार मन का , स्वयं सागर में,

बूंद बनकर खो जाता है ॥

तीन महासागरों का मिलन समन्वय सिखाता है ।

एकनाथजी की मेहनत के आगे

ह्रदय नतमस्तक हो जाता है ।

स्वामीजी की खडी प्रतिमा,

कदम बढाओ कहती है ।

आखों का भेद , चेहरे का तेज ,

लक्ष्य निर्धारित करती है ।

हे अमृत के पुत्र , परमहंस के शिष्य,

पौरूष से युक्त , तुम और तुम्हारी छबि महान है ।

मैं गागर हूं तुम सागर हो, आप जैसा कर दो मुझे,

तुम्हें बारम्बार प्रणाम है, बारम्बार प्रणाम है ॥

– लखेश