
(23 जुलाई, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जयंती पर विशेष)
– लखेश्वर चंद्रवंशी ‘लखेश’
बाल गंगाधर तिलक यह नाम ‘लोकमान्य’ है, क्योंकि तिलक जननायक थे। जनता का उनपर अटूट विश्वास था। यह विश्वास इसलिए नहीं था कि वे बहुत धनवान थे अथवा उस समय के अंग्रेजी शासनकर्ताओं के साथ उनकी खूब बनती थी, वरन इसलिए था कि उन्होंने अंग्रजों के अत्याचारों के विरुद्ध जनता में राष्ट्रीय चेतना का अलख जगाया था। हताश, निराश और दिशाहीन समाज में ‘सम्पूर्ण स्वाधीनता’ का भाव जगाया था और सिंहवत गर्जना के साथ उद्घोष किया था,- “स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और में इसे लेकर ही रहूंगा।” यह उद्घोष एक लहर की तरह देशभर में फ़ैल गया। जनता के विचार, व्यवहार और चेहरे पर स्वराज्य प्राप्ति की चाह हिलोरें लेने लगी। यह उद्घोष आज भी हर भारतीय के जुबान पर राज कर रहा है। ‘स्वराज, स्वाधीनता, बहिष्कार, स्वदेशी’ ये शब्द तिलक जी के राष्ट्रीयता से ओतप्रोत मुखर पत्रकारिता की देन है।
लोकमान्य तिलक की पत्रकारिता ने ही स्वतंत्रता आन्दोलन को व्यापक बनाया। तिलक ने विष्णु शास्त्री चिपलूणकर के साथ मिलकर सन 1881 में मराठी भाषा में ‘केसरी’ और अंग्रेजी में ‘मराठा’ नामक साप्ताहिक अख़बार की शुरुवात की। बाद में सन 1891 में उन्होंने केसरी और मराठा दोनों पत्रों का पूरा भार स्वयं पर ले लिया और स्वतंत्र रूप से उसका प्रकाशित करना शुरू कर दिया। उन्होंने अपनी प्रतिभा, लगन और अदम्य साहस के बल पर पत्रकारिता के महान आदर्श बन गए। उनकी प्रखर लेखनी ने केसरी और मराठा को पत्रकारिता जगत में बड़ी पहचान दी। दोनों की अख़बार स्वतंत्रता आन्दोलन का ‘अग्निमंत्र’ बन गया।
‘केसरी’ के सम्बन्ध में उन्होंने पत्रकारिता के अपने उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए लिखा था –“केसरी निर्भयता एवं निष्पक्षता से सभी प्रश्नों की चर्चा करेगा। ब्रिटिश शासन की चापलूसी करने की जो प्रवृत्ति आज दिखाई देती है, वह राष्ट्रहित में नहीं है। ‘केसरी’ के लेख इसके नाम को सार्थक करनेवाले होंगे।”
सन 1905 में जब ब्रिटिश शासन ने बंगाल प्रान्त का विभाजन की योजना बनाई तब तत्कालीन कांग्रेस में हडकंप मच गया। कांग्रेस को अनुनय-विनय की नीति अपनायी, पर लोकमान्य तिलक ने पत्रकारिता के माध्यम से इसे व्यापक राष्ट्रीय स्वरूप प्रदान किया। इस आन्दोलन में तिलक के केसरी और मराठा साप्ताहिक की महत्वपूर्ण भूमिका रही। लोकमान्य तिलक ने मराठा और केसरी के माध्यmम से गणेश उत्सव, शिवाजी उत्सव एवं स्वदेशी के उपयोग में लोगों से भागीदार बनने की अपील की। लोकमान्य जो आंदोलन चलाते उसका उनके पत्र बखूबी आह्वान करते थे। तिलक ने ही स्वदेशी के उपयोग एवं ब्रिटिश वस्तुओं के बहिष्कार का आह्वान किया था। तिलक ने स्वदेशी और बहिष्कार आन्दोलन के राजनीतिक महत्व को उजागर किया। उन्होंने लोगों से कहा कि चाहे कुछ भी त्याग करना पड़े, वे स्वदेशी का उपभोग करें। अगर कोई भारतीय वस्तु उपलब्ध न हो तो उसके स्थान पर गैरब्रिटिश वस्तु इस्तेमाल में लाएं। उन्होंने लिखा-
“ब्रिटिश सरकार चूंकि भारत में भय से मुक्त है, इससे उसका सिर फिर गया है और वह जनमत की नितान्त उपेक्षा करती है। वर्तमान आन्दोलन से जो एक सार्वजनिक मानसिकता उत्पन्न हो गई है, उससे लाभ उठाकर हमें एक ऐसे केन्द्रीय ब्यूरो का संगठन करना चाहिए जो स्वदेशी माल और गैरब्रिटिश माल के बारे में जानकारी एकत्रित करे। इस ब्यूरो की शाखाएं देशभर में खोली जाएं, भाषण और मीटिंगों द्वारा आंदोलन के उद्देश्य की व्याख्या की जाए और नई दस्तकारियां भी लगाई जाएं।”
तिलक ने अपने पत्र के माध्यम से चार सूत्री कार्यक्रम – बहिष्कार, स्वदेशी, राष्ट्रीय शिक्षा और स्वराज आंदोलन को प्रसारित कर देश में जनजागरण किया। भारतवासियों को बहिष्कार आंदोलन का मर्म समझाते हुए तिलक ने ‘केसरी’ के सम्पादकीय में लिखा था –
“लगता है कि बहुत से लोगों ने बहिष्कार आंदोलन के महत्व को समझा नहीं। ऐसा आंदोलन आवश्यक है, विशेषकर उस समय जब एक राष्ट्र और उसके विदेशी शासकों में संघर्ष चल रहा हो। इंग्लैंड का इतिहास इस बात का ज्वलंत उदाहरण प्रस्तुत करता है कि वहां की जनता अपने सम्राट का कैसे नाकों चने चबवाने के लिए उठ खड़ी हुई थी, क्योंकि सम्राट ने उनकी मांगे पूरी करने से इंकार कर दिया था। सरकार के विरूद्ध हथियार उठाने की न हमारी शक्ति है न कोई इरादा है। लेकिन देश से जो करोड़ों रूपयों का निकास हो रहा है, क्या हम उसे बंद करने का प्रयास न करें? क्या हम नहीं देख रहे हैं कि चीन ने अमेरिकी माल का जो बहिष्कार किया था, उससे अमेरिकी सरकार की आंखें खुल गईं। इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है कि एक परतंत्र राष्ट्र, चाहे वह कितना ही लाचार हो, एकता साहस और दृढ़ निश्चय के बल पर बिना हथियारों के ही अपने अंहकारी शासकों को धूल चटा सकता है।”
लोकमान्य तिलक के स्वदेशी प्रेम और विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की नीति से महात्मा गांधी बहुत प्रभावित थे, उन्होंने आगे चलकर तिलक के इस नीति का अपने सत्याग्रह में अनुसरण किया। महात्मा गांधी ने लोकमान्य तिलक के सम्बन्ध में कहा है कि, –“तिलक-गीता का पूर्वाद्ध है ‘स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है’, और उसका उत्तरार्द्ध है ‘स्वदेशी हमारा जन्मसिद्ध कर्तव्य है’। स्वदेशी को लोकमान्य बहिष्कार से भी ऊंचा स्थान देते थे।”
तिलक की पत्रकारिता राष्ट्रीयता से ओतप्रोत थी। राष्ट्रहित के सिवा उनकी पत्रकारिता का कोई उद्देश्य नहीं था। पर स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद आज पत्रकारिता का हेतु, उद्देश्य और स्वरुप भी बदल सा गया है। आज की पत्रकारिता तथ्य और सत्य से अधिक जनता को भ्रम में डालकर उन्हें बरगलाने का काम करती है। पत्रकारिता आज देशहित से अधिक लाभार्जन और अपना रौब झाड़ने का साधन बन गया है, यह आज किसी से छिपा नहीं है। ऐसे में तिलक की ‘लोकमान्य’ पत्रकारिता से वर्तमान पत्रकारों और समाचार पत्रों के मालिकों को प्रेरणा लेने की आवश्यकता है।