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नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के प्रेरणास्रोत ‘स्वामी विवेकानन्द’

नेताजी सुभाषचन्द्र बोस जितने बड़े राष्ट्रनायक और योद्धा थे, उतने ही बड़े चिन्तक थे। यदि उन्होंने अपने जीवन के लिए केवल चिन्तन का क्षेत्र चुना होता तो उनकी गणना निश्चित रूप से बड़े दार्शनिकों और चिन्तकों में होती। किन्तु मातृभूमि की स्वतंत्रता और उसकी समृद्धि ही उनका जीवन-ध्येय बन गया था। भारतमाता को अपना सर्वस्व न्योछावर करनेवाले नेताजी के जीवन पर स्वामी विवेकानन्द के विचारों का सबसे बड़ा प्रभाव पड़ा था।

उल्लेखनीय है कि १५ जनवरी, १८९७ को स्वामी विवेकानन्द अपनी विदेश यात्रा पूरी कर भारत लौटे थे। स्वामीजी के आगमन से सारा भारत अद्भुत आनंद, उत्साह और आत्मविश्वास से सराबोर हो गया था। इस विजयी वातावरण में २३ जनवरी, १८९७ को सुभाष का जन्म कटक में हुआ। स्वामी विवेकानन्द ने वर्ष १८९७ में आह्वान किया था कि, “आगामी पचास वर्ष के लिए यह जननी जन्मभूमि भारतमाता ही मानो आराध्य देवी बन जाए।…अपना सारा ध्यान इसी एक ईश्वर पर लगाओ, हमारा देश ही हमारा जाग्रत देवता है। सर्वत्र उसके हाथ हैं, सर्वत्र उसके पैर हैं और सर्वत्र उसके कान हैं। समझ लो कि दूसरे देवी-देवता सो रहे हैं।…जब हम इस प्रत्यक्ष देवता की पूजा कर लेंगे, तभी हम दूसरे देव-देवियों की पूजा करने योग्य होंगे, अन्यथा नहीं।”

स्वामीजी के इस सन्देश का प्रभाव नेताजी के जीवन पर देखी जा सकती है। इस सम्बन्ध में ‘नेताजी सुभाष के प्रेरणापुरुष स्वामी विवेकानन्द’ पुस्तक में स्वामी विदेहात्मानन्द का कथन उल्लेखनीय है। वे लिखते हैं, – “बड़े विस्मय की बात है कि जिन दिनों स्वामीजी के मन में इस तरह के विचार उठ रहे थे, उन्हीं दिनों २३ जनवरी, १८९७ के दिन सुभाष का जन्म हुआ जिन्होंने स्वामीजी के उपर्युक्त सन्देश को अक्षरशः चरितार्थ किया। आगे चलकर यही वाणी ईश्वरोपलब्धि के लिए संन्यास ग्रहण करने की प्रबल आकांक्षा को त्यागकर प्रायः पचास वर्ष की आयु तक देश की स्वाधीनता के लिए संघर्ष किया, भारतमाता और उनकी सन्तानों की सेवा में लगे रहे और अपने आजीवन श्रम के फलप्रसू होने के चिन्ह दृष्टिगोचर होते ही अन्तर्ध्यान हो गए।”

सुभाष के पिता जानकीनाथ बोस एक प्रसिद्ध वकील थे और माता प्रभावती देवी अत्यन्त धर्मपरायण महिला थी। बचपन से ही सुभाष बहुत गम्भीर थे। समाज के प्रति उनके हृदय में बड़ी आत्मीयता थी। किन्तु अंग्रेजों के प्रति उनमें बड़ा ही रोष था। एक दिन सुभाष की पुस्तकों की आलमारी में उनकी माता को एक चिट्ठी मिली। उसमें लिखा था :-

“चाहिए – हिन्दुस्थान में लष्करी क्रान्ति करने के लिए जवाँमर्द चाहिए। तनख्वाह – मृत्यु, ईनाम – शहीदी, निवृत्ति वेतन – आजादी, कार्यक्षेत्र – हिन्दुस्थान रणभूमि।”

          यह पढ़कर माता प्रभावती स्तब्ध रह गई। उन्होंने सुभाष से पूछा, “यह क्या है?” बालक सुभाषचन्द्र बोस से बड़ी सरलता से कहा, “पूरे भारत को वीर बनना होगा माँ। स्वामी विवेकानन्द ने कहा है न, – ‘आज हमारे देश को जिस चीज की आवश्यकता है, वह है लोहे की मांसपेशियाँ और फौलाद के स्नायु; प्रचण्ड इच्छाशक्ति, जिसका अवरोध दुनिया की कोई ताकत न कर सके।‘ – माँ, मैं स्वामीजी के सपनों को साकार करना चाहता हूँ। स्वामीजी, भारत को विश्वगुरु के रूप में देखना चाहते थे। किन्तु भारत अंग्रेजों के अधीन है। ऐसे में भारत विश्वगुरु कैसे बन पाएगा? इसलिए सबसे पहले हमें भारत को हर हाल में स्वतंत्र कराना होगा।“

माँ बोली, “सुभाष, तुम अभी छोटे हो! पढ़-लिख कर थोड़े बड़े हो जाओ। तभी तो देश का काम कर सकोगे।”

ऐसे थे बालक सुभाष!

उल्लेखनीय है कि विद्यार्थीकाल में सुभाषचन्द्र बोस पर स्वामीजी के विचारों का गहन प्रभाव पड़ा था। स्वयं नेताजी अपने एक पत्र में लिखते हैं, “मैं उस समय मुश्किल से पन्द्रह वर्ष का था, जब विवेकानन्द ने मेरे जीवन में प्रवेश किया। इसके परिणामस्वरूप मेरे भीतर एक उथल-पुथल मच गई, एक क्रान्ति घटित हुई। स्वामीजी को समझने में तो मुझे काफी समय लगा, लेकिन कुछ बातों की छाप मेरे मन में शुरू से ही ऐसी पड़ी कि कभी मिटाये न मिट सकी। विवेकानन्द अपने चित्रों में और अपने उपदेशों के जरिये मुझे एक पूर्ण विकसित व्यक्तित्व लगे। मैंने उनकी पुस्तकों में अनेक प्रश्नों के सन्तोषजनक उत्तर पाए। …अब मैंने उस मार्ग का चयन कर लिया, जो मुझे विवेकानन्द ने दिखाया था।…..”       

नेताजी ने अपने जीवन को अपने आदर्श स्वामी विवेकानन्द के विचारों के अनुरूप गढ़ा था। स्वामीजी ने ‘त्याग और सेवा’ को भारत का राष्ट्रीय आदर्श कहा था। वे कहा करते थे – “वीर बनों, बलवान बनों और बाकी सब अपनेआप हो जाएगा।” बालपन में उन्होंने अपने मित्रों की टोली बनाई थी जिसका उन्होंने नाम दिया था – ‘नव विवेकानन्द दल’। स्वामीजी की प्रेरणा से ही बाल्यकाल में ही समाज की सेवा के लिए उन्होंने पहल की और फिर आध्यात्म की ओर भी उन्मुख हुए। वे जानते थे कि विश्व को भारत ही आध्यात्मिक ज्ञान दे सकता है। किन्तु भारत स्वतंत्र नहीं हुआ तो वह अपने दैवीय लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकेगा।

नेताजी ने अपना सर्वस्व दुर्गा स्वरूप भारतमाता को अर्पित कर दिया था। वे हर हाल में भारत की पूर्ण स्वतंत्रता चाहते थे, इसके लिए चाहे अंग्रेजों से युद्ध ही क्यों न करना पड़े! वे जनता से आह्वान करते हैं कि तुम मातृभूमि की बलिवेदी पर अर्पित हो जाओ। मातृभूमि बलिदान चाहती है। वे देशवासियों का आह्वान करते हैं, “तुम मुझे खून दो, मैं तुझे आजादी दूंगा।” नेताजी के इस आह्वान ने आजाद हिन्द फौज के सैनिकों सहित पूरे भारत में प्राण फूंक दिए।

वर्ष १९४६ में नेताजी ने कहा था कि हम नहीं कह सकते कि भारत की आजादी देखने के लिए हम में से कौन-कौन बचेगा; पर यह निश्चित है कि निकट भविष्य में ही भारत को आजादी मिलेगी और वह आजाद हिन्द फौज के प्रभाव से मिलेगी। नेताजी की यह भविष्यवाणी पूर्ण रूप से सत्य साबित हुई।  नेताजी के पराक्रम और उनके आह्वान के प्रभाव से ही अंग्रेज भारत छोड़ने के लिए मजबूर हुए और इस तरह १५ अगस्त, १९४७ को भारत स्वतंत्र हुआ। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस और उनके प्रेरणास्रोत स्वामी विवेकानन्द की जयन्ती पर उन्हें शत शत नमन।   

– लखेश

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श्रद्धा और निष्ठा

विवेकानन्द केन्द्र की अखिल भारतीय अधिकारी बैठक, महाकाल की नगरी उज्जैन में सम्पन्न हुई। देश के विभिन्न प्रान्तों से आए विवेकानन्द केन्द्र के प्रान्त अधिकारियों और प्रकल्प के अधिकारियों की इसमें सहभागिता रही। केन्द्र के जीवनव्रती कार्यकर्ताओं का अभूतपूर्व मार्गदर्शन सबको प्राप्त हुआ। विवेकानन्द केन्द्र एक वैचारिक आंदोलन है। स्वामी विवेकानन्द के विचारों को जन-मन में प्रवाहित कर, भारत के पुनरुत्थान के लिए देशवासियों को सक्रिय करने का कार्य विवेकानन्द केन्द्र करता है।
व्यक्ति कार्य करता है किन्तु वह कार्य किस भाव से करता है, यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। प्रत्येक व्यक्ति कहीं न कहीं, किसी न किसी संस्थान अथवा संस्था में काम करता है। काम के फलस्वरूप मनुष्य को धन, नाम, यश और कीर्ति की प्राप्त होती है। इसलिए कार्य के साथ ही कार्य करने की भावना का भी अनन्य महत्त्व है।
कोई कम्पनी में कर्मचारी काम करता है तो उसे अपने बॉस के निर्देशों का पालन करना होता है। निर्देश प्राप्त होते ही वह काम पर लग जाता है। यह डर बना रहता है कि काम में कोई चूक न हो जाए या अच्छा काम होगा तो बॉस सराहना करेंगे और अधिक धन भी मिलेगा। यहाँ स्मरण रखना होगा कि डर और प्रलोभन से किए गए काम में बनने और बिगड़ने की शंका बनी रहती है। क्योंकि वहाँ श्रद्धा का अभाव होता है। कार्य के प्रति जब हमारी श्रद्धा होती है तो काम अच्छा ही होता है।
हम देखते हैं कि समाज में बहुतांश लोग स्वयं को श्रद्धावान कहते हैं, क्योंकि वे किसी न किसी पर श्रद्धा रखते हैं। किसी के मन में श्रीराम के प्रति श्रद्धा है तो किसी के मन में श्रीकृष्ण के प्रति, कोई छत्रपति शिवाजी महाराज को अपना आदर्श मानता है तो कोई महाराणा प्रताप को। कोई गांधीजी के प्रति श्रद्धानत है तो कोई डॉ. आम्बेडकर के प्रति। भारत के अधिकांश युवा स्वामी विवेकानन्द, भगत सिंह, डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम आदि को अपना आदर्श बताते हैं। जब सभी लोग श्रद्धावान हैं तो उसका प्रभाव भला लोकजीवन में क्यों दिखाई नहीं देता? क्योंकि श्रद्धा केवल भावना और विचारों के स्तर पर है, वह कार्य के रूप में परिणत नहीं हुआ। इसलिए श्रद्धा का लक्षित परिणाम समाजजीवन में दिखाई नहीं देता।
स्वामीजी कहा करते थे, “मनुष्य! केवल मनुष्य भर चाहिए। आवश्यकता है वीर्यवान, शौर्यवान और श्रद्धासम्पन्न नवयुवकों की, बाकी सब अपनेआप हो जाएगा।“ ऐसे में सोचनेवाली बात है कि हम श्रद्धावान लोग क्या सचमुच श्रद्धावान हैं? विवेकानन्द केन्द्र के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष श्री एम. हनुमन्तराव ने अखिल भारतीय अधिकारी बैठक के उद्घाटन सत्र में ‘श्रद्धा और निष्ठा” विषय को लेकर बहुत गहरी बात रखी। उन्होंने कहा कि ‘श्रद्धा रहित निष्ठा’ और ‘निष्ठा रहित श्रद्धा’ – दोनों ही स्थिति ठीक नहीं है। कार्यकर्ता में श्रद्धा और निष्ठा दोनों ही होना चाहिए। श्रद्धा की परिणति निष्ठा के रूप में होनी चाहिए, तब कार्य सिद्ध होता है।
श्रद्धा यह भावना के स्तर पर होती है। भावना में इतनी शक्ति होती है कि वह असम्भव को सम्भव बना सकती है। पहले भावना का प्रबल होना आवश्यक है। भावनाएं प्रबल होती हैं तो वह कार्य में परिणत होने के लिए छटपटाहट का रूप ले लेती हैं। पर जब तक श्रद्धा की परिणति निष्ठा के रूप में न हो तो कार्य सिद्ध नहीं होगा। निष्ठा के अभाव में हमारी बातें उच्च स्तर की होगी और हमारा कर्म निकृष्ट ही रहेगा। उदाहरणार्थ, – “समर्थ रामदास पर हमारी अटूट श्रद्धा है, क्योंकि वे राम के परम भक्त थे और प्रतिदिन सुबह
बारह सौ सूर्यनमस्कार करते थे। इसलिए हम उनकी रोज पूजा करते हैं, यह उनके प्रति हमारा श्रद्धाभाव है। किन्तु हम प्रातः उठ ही नहीं पाते और सूर्यनमस्कार करने में हमें आलस्य होता है।” यह स्थिति खतरनाक है। क्योंकि श्रद्धा होते हुए भी हम श्रद्धावान नहीं बन सके। श्रद्धावान बनने पर ही निष्ठा का द्वार खुलता है। श्रद्धा की परिणति कार्य के रूप में होता है तब वह निष्ठा कहलाती है।
माननीय एकनाथजी की स्वामी विवेकानन्द के प्रति अटूट श्रद्धा थी और उन्होंने विवेकानन्द केन्द्र की स्थापना कर ‘शिवभावे जीवसेवा’ के सन्देश को कार्य के रूप में परिणत किया। वे हमेशा कहा करते थे, – ‘स्वामीजी के प्रति केवल आपकी श्रद्धा है, इससे काम नहीं चलेगा, वरन स्वामीजी के सपनों को साकार करने के लिए हमें अपने प्राणों का उत्सर्ग करना होगा।’ यह समर्पण ही निष्ठा है। श्रद्धा विचार है, तो निष्ठा कार्य है। आइए, अपने श्रद्धाभाव को कार्य के रूप में प्रगट करें, जिससे कि हमारा कर्म कर्तव्य-निष्ठा बन जाए।

– डॉ. लखेश्वर चन्द्रवंशी ‘लखेश’

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पंडित माधवराव सप्रे के ध्येयगामी जीवन का वैचारिक अधिष्ठान  

पंडित माधवराव सप्रे भारतीय नवजागरण के पुरोधा सम्पादक-साहित्यकार के रूप में जाने जाते हैं। उन्होंने लोकमान्य तिलक की राष्ट्रीय पत्रकारिता के तेज का हिन्दी जगत में संचार करने का महान कार्य किया है। साहित्य से लेकर पत्रकारिता जगत में पंडित माधवराव सप्रेजी की सार्ध शती बड़े उत्साहपूर्वक मनाई गई।

सप्रेजी को एक प्रखर चिन्तक, मनीषी सम्पादक, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और राष्ट्रभाषा हिन्दी के विकास में योगदान देनेवाले प्रेरणापुरुष के रूप में जाना जाता है। सप्रेजी के जीवन और कार्यों का जब हम अध्ययन करते हैं तो उनके व्यक्तित्व और कार्य के अनेक विशेषताओं का हमें परिचय मिलता है। एक ओर वे प्रखर पत्रकार और स्वतंत्रता सेनानी हैं, वहीं दूसरी ओर वे अध्यात्म और राष्ट्रीयता का अध्ययन करनेवाले गम्भीर विचारक और एक समर्पित भक्त के रूप में दिखाई देते हैं। उनकी कार्यशैली की सबसे बड़ी विशेषता थी उनका विलक्षण चयन कौशल। साहित्य के क्षेत्र में हो या पत्रकारिता के, या फिर योग्य व्यक्ति के चयन की बात हो, उनका चयन कौशल अद्भुत था। अनुवाद के लिए समर्थ रामदास कृत ‘दासबोध’, तिलक रचित ‘गीता रहस्य’ और चिन्तामणि विनायक वैद्य लिखित ‘महाभारत-मीमांसा’ का चयन किया। उन्होंने अपना आदर्श बनाया लोकमान्य तिलक को और पंडित माखनलाल चतुर्वेदी का चयन कर उन्हें ‘कर्मवीर’ पत्रिका का सम्पादक बनाया। ऐसे अद्भुत योजक थे सप्रेजी। किन्तु सप्रेजी के जीवन को दिशा देनेवाले विचार कौन से थे? किन विचारों ने उनके जीवन को ध्येयगामी बना दिया, इसपर भी विचार होना प्रासंगिक है।

सप्रेजी की वैचारिक पृष्ठभूमि का आकलन करने के लिए उनके जीवन के महत्त्वपूर्ण पहलुओं को समझना होगा। मैनेजर पाण्डेय ने ‘माधवराव सप्रे का महत्त्व’ शीर्षक से लिखे अपने लेख में कहा है कि “साहित्य और राजनीति में अपने जीवन का लक्ष्य निश्चित करते समय सप्रेजी के प्रेरणास्रोत थे। मराठी के प्रसिद्ध लेखक और विचारक विष्णु शास्त्री चिपलूणकर और लोकमान्य तिलक। विष्णु शास्त्री चिपलूणकर से उन्हें जानदार भाषा में निर्भीक होकर अपने विचार व्यक्त करने की प्रेरणा मिली और तिलक से उन्होंने उग्र राष्ट्रवादी राजनीतिक दृष्टिकोण प्राप्त किया।” मैनेजर पाण्डेय के उक्त कथन के अनुसार सप्रेजी की निर्भीक पत्रकारिता में उपर्युक्त दोनों का प्रभाव तो दिखता है किन्तु कार्यशैली में ‘लोक सम्पर्क और व्यक्ति चयन’ की विशिष्ट कला उन्होंने समर्थ रामदास के ‘दासबोध’ से प्राप्त की थी।

समर्थ रामदास कहते हैं –

नरदेह हा स्वाधीन। सहसा नव्हे पराधीन।

परन्तु हा परोपकारीं झिजवून। कीर्तिरूपें उरवावा॥२५॥

अर्थात नरदेह स्वाधीन है, यह सहसा पराधीन नहीं होती। इस देह को परोपकार में लगाकर कीर्तिरूप से अमर कर देना चाहिए।

पंडित सप्रे के जीवन में यह स्वाधीनता का भाव झलकता है। उन्होंने निर्भीक जीवन व्यतीत किया और देशहित में वैचारिक क्रान्ति के लिए अपना जीवन अर्पित कर दिया।

तिलक का आदर्श   

लोकमान्य तिलक मराठी भाषा में ‘केसरी’ और अंग्रेजी में ‘मराठा’ नामक साप्ताहिक समाचार पत्र प्रकाशित करते थे। वे अपने पत्र के माध्यम से चार सूत्री कार्यक्रम – बहिष्कार, स्वदेशी, राष्ट्रीय शिक्षा और स्वराज्य आंदोलन को प्रसारित कर रहे थे।

तिलक उस काल के जननायक थे और इसलिए उन्हें ‘लोकमान्य’ कहा जाता था। उन्होंने हताश, निराश और दिशाहीन समाज में ‘सम्पूर्ण स्वाधीनता’ का भाव जगाया था और सिंहवत गर्जना के साथ उद्घोष किया, – “स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर ही रहूँगा।” तिलक के विचारों के महत्त्व को समझते हुए उसका प्रचार व्यापक रूप से होना आवश्यक था। पंडित माधवराव सप्रे समाज को जाग्रत करने के लिए हिन्दी को सबसे बड़ा शस्त्र मानते थे। अतः १९०५ में उन्होंने नागपुर में हिन्दी ग्रंथ प्रकाशन मंडली की स्थापना की। इसी मंडली के द्वारा ‘हिन्दी रंगमाला’ का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ और सप्रेजी ने ‘स्वदेशी आंदोलन और बॉयकाट’ नामक एक लम्बा निबन्ध लिखा। वर्ष १९०६ में इसका प्रकाशन हुआ। यह निबन्ध लोकमान्य तिलक के ‘केसरी’ में स्वदेशी आन्दोलन के सम्बन्ध में प्रकाशित लेखमाला के आधार पर लिखा गया था। इस पुस्तिका में स्वदेशी आंदोलन के महत्त्व तथा अंग्रेजी शासन द्वारा भारत के शोषण का विस्तार से विवेचन किया गया था। इस पुस्तक की लोकप्रियता बढ़ने लगी थी। इसने जन चेतना को झकझोरा था इसलिए अंग्रेजी शासन ने १९०९ में इस पुस्तक पर पाबंदी लगा दी।

हिन्दीभाषी क्षेत्रों में राष्ट्रीय विचारों को प्रचारित करने के उद्देश्य से पंडित माधवराव सप्रे ने १३ अप्रैल, १९०७ को साप्ताहिक ‘हिन्दी केसरी’ का प्रकाशन शुरू किया। ‘हिन्दी केसरी’ में काला पानी, देश का दुर्दैव, बाम्ब गोले का रहस्य जैसे लेख प्रकाशित हुए। ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीतियों और अत्याचारों पर प्रहार करनेवाली सम्पादकीय टिप्पणियाँ वे बड़ी प्रखरता से करते थे। सप्रेजी और हिन्दी केसरी के सम्बन्ध में राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन के इस कथन का उल्लेख करना यहाँ समीचीन होगा। वे कहते हैं, ‘‘सप्रेजी उन थोड़े से इने गिने मनुष्यों में हैं, जिन्होंने अपना सुख त्याग कर देशहित के लिए अपना जीवन समर्पण किया है। उन गिने हुए देशसेवकों में हैं, जिन्होंने मातृभाषा दूसरी होते हुए भी, हिन्दी को राष्ट्रभाषा के नाते अपनाया है।…..उनका गीता रहस्य तो बहुतों ने देखा है। वह कितनी ऊँची वस्तु है, प्राय: सब ही पढ़े-लिखे लोग जानते हैं। किन्तु जो उनके जीवन-रहस्य से परिचित हैं वे इतना और अधिक जानते हैं कि सप्रेजी का व्यक्तित्व कितने उच्च आदर्श का है। सप्रेजी का सम्बन्ध राष्ट्रीयता से प्राचीन है। वह केसरी होकर भारत में गरज चुके हैं। उनकी वाणी से कितने ही शत्रुओं के हृदय दहल चुके हैं। सप्रेजी जैसी महान आत्माओं द्वारा उसी प्रकार ‘हिन्दी केसरी’ फिर गरजेगा और राष्ट्र को आगे बढ़ावेगा।” हुआ ऐसा ही। ‘हिन्दी केसरी’ की लोकप्रियता बढ़ने लगी थी। स्वदेशी का प्रचार, विदेशी का बहिष्कार, स्वराज्य की आवश्यकता और आत्मगौरव के बोध से सम्बन्धित विचार छापे जाते थे। इस साप्ताहिक में स्वदेशी आंदोलनों और स्वतंत्रता सेनानियों का समर्थन होता था। ‘हिन्दी केसरी’ की लोकप्रियता के चलते ब्रिटिश सरकार का रोष भी बढ़ता ही गया और २२ अगस्त, १९०८ को अंग्रेजों ने सप्रेजी को गिरफ्तार कर लिया। 

सप्रेजी तीन माह नागपुर के सेन्ट्रल जेल में कैदी रहे। तब उनके बड़े भाई बाबूराव ने यह धमकी दी थी कि, “यदि मेरा भाई माफी मांग कर हवालात से बाहर नहीं आता तो मैं आत्महत्या कर लूंगा”। भाई की जिद से विवश होकर क्षमापत्र पर उन्होंने हस्ताक्षर कर दिये। क्षमा मांग कर जेल से छूटने के बाद सप्रेजी लम्बे समय तक ग्लानि की मनोदशा में रहे। इसी मनोदशा में वे एक वर्ष तक अज्ञातवास में थे। दासबोध के अनुवादित ग्रंथ की भूमिका में पंडित माधवराव सप्रेजी लिखते हैं, – “सन १९०८ के अगस्त महीने की २२वीं तारीख से नवम्बर तक नागपुर के सेन्ट्रल जेल में मेरे सार्वजनिक जीवन का कुछ भाग व्यतीत हुआ था। मैंने सरकार से क्षमा मांगकर अपनी मुक्तता प्राप्त कर ली – इस बात पर लोगों ने कुछ अनुकूल और बहुत प्रतिकूल टीका की; परन्तु उस समय मैंने अपनी ओर से कुछ उत्तर नहीं दिया। उस विषय पर मैं अब भी किसी प्रकार की चर्चा करना नहीं चाहता। इसमें संदेह नहीं कि, कारागृह से मुक्त होने के बाद, मेरे अंतःकरण की दशा बहुत चंचल, क्षुब्ध और क्लेशदायक हो गई थी; इसलिए शान्तिसुख का अनुभव करने के हेतु मुझे कुछ समय तक रायपुर में आकर अज्ञातवास का स्वीकार करना पड़ा। यहाँ एक ओर जनसमाज ने मुझे स्वदेशद्रोही, विश्वासघाती और डरपोक कहकर मेरा त्याग कर दिया और दूसरी ओर सरकार ने मुझे लवाई, अराजनिष्ठ और विद्रोहकारी जानकर अपने जासूस-गुप्त दूत- डिटेक्टिव- मेरे पीछे लगा दिए! ऐसी अवस्था में मेरी जो आन्तरिक दुर्दशा हो रही थी उसका हाल मैं ही जानता हूँ!

इस हताहत करनेवाली मनोदशा से सप्रेजी को समर्थ रामदास कृत ‘दासबोध’ ग्रंथ ने बाहर निकाला। अज्ञातवास के दौरान उन्होंने ‘दासबोध’ का पहले अध्ययन किया। इस अध्ययन से उन्होंने यह अनुभव किया कि इसका अनुवाद हिन्दी में होने पर अधिकाधिक देशवासी इससे लाभान्वित होंगे। अतः उन्होंने इस महान ग्रंथ का अनुवाद किया। 

अनुवाद के क्षेत्र में कार्य करनेवाले जानते हैं कि साहित्य के मूल भाषा से प्राप्त विचारों को अनुवादित भाषा में उसी रूप में परिणत करना होता है। एक दृष्टि से मूल लेखक की वैचारिक भावजगत से अनुवादक को एकाकार होना पड़ता है। इसके बाद ही अनुवाद सही रूप में सिद्ध होता है। साधारण हो या विशिष्ट, रचनाकार के पुस्तक का अनुवाद करने में अनुवादक के मन-मस्तिष्क में मूल लेखक के वैचारिक भाव का संचार स्वभावतः होता ही है। फिर समर्थ रामदास को भारतीय सन्त परम्परा के श्रेष्ठतम विभूति हैं और पंडित सप्रे ने समर्थ रामदास कृत ‘दासबोध’ का मराठी से हिन्दी में अनुवाद किया है। उल्लेखनीय है कि समर्थ के हितोपदेश के सम्पर्क में जो भी आता है उसके जीवन जीने के दृष्टिकोण में सकारात्मक परिवर्तन अवश्य दिखाई देते हैं। अतः समर्थ के विचारों में रमण करने के कारण सप्रेजी की कार्यशैली में वह दृष्टिकोण अवश्य देखी जा सकती है।   

यह सर्वविदित है कि ‘दासबोध’ में प्रतिपादित विचार ‘लोक कल्याण’ का है। लोक कल्याण के लिए ‘सज्जन शक्ति का निर्माण’ कर ‘धर्माधिष्ठित स्वराज्य’ को प्रतिष्ठित करने भाव इसमें निहित है। कार्य योजना, लोक सम्पर्क, वैचारिक स्पष्टता, मानवीय सदाचार के साथ ही उन सभी बातों के प्रति समर्थ रामदास ने सचेत किया है जो लोक कल्याण में बाधक हैं। इतना ही नहीं तो बाधाओं पर विजय प्राप्त करने की युक्ति भी उन्होंने बतलाई है।

महंतें महंत करावे…

          भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी नेता लोकमान्य तिलक को अंग्रेजों ने ३ जुलाई, १९०८ को राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर ६ वर्ष के बर्मा के मांडले जेल भेज दिया गया। उधर विनायक दामोदर सावरकर को कालापानी और आजीवन कारावास का दंड देकर अंदमान के सेलुलर जेल में बंद कर दिया गया। स्वतंत्रता आंदोलन नेतृत्वहीन होने चला था और आंदोलन की धार शिथिल होने लगी थी। ऐसे में पंडित माधवराव सप्रे ने स्वतंत्रता आंदोलन के लिए राष्ट्रीय चेतना का बीज बोने का निश्चय किया। ऐसा बीज जो विकसित होकर वटवृक्ष की भांति विस्तारित हो। क्या किया जाए, कार्य आगे कैसे बढ़े? तो दासबोध से प्राप्त लोक सम्पर्क और लोक संस्कार के सूत्र काम आए।        

छत्रपति शिवाजी महाराज के आध्यात्मिक गुरु समर्थ रामदास कहते हैं –

महंतें महंत करावे। युक्तिबुद्धीने भरावे।

जाणते करून विखरावे। नाना देसी। श्रीराम॥२५॥ 

अर्थात महन्त को चाहिए कि वह अन्य अनेक महन्त उत्पन्न करे और उन्हें ‘युक्ति’ तथा ‘बुद्धि’ से पूर्ण करके, ज्ञाता बनाकर, अनेक देशों में फैलावे

‘दासबोध’ के उक्त उपदेश को सप्रेजी ने अपने जीवन में साकार किया। पहले स्वयं को उच्च विचारों से सम्पन्न किया और फिर समाज में उन विचारों को प्रसारित करने के लिए ‘अनुवाद’ कार्य को अपना आधार बनाया। उन्होंने नवजागरण की प्रक्रिया को व्यापक बनाने के लिए नई विधि से कार्य शुरू किया। ज्ञान और विचार प्रसारित करने की उनकी प्रक्रिया भी अलग थी। सबसे पहले उन्होंने वर्ष १९१० दासबोध का अनुवाद किया। फिर तिलक रचित ‘गीता रहस्य’ का अनुवाद १९१५ में पूरा किया। एक सम्पादक के रूप में उन्होंने ‘महंतें महंत करावे’ की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया। स्वदेशी का प्रचार, विदेशी का बहिष्कार, स्वराज्य की प्राप्ति और भारतबोध के सन्देश को जन-मन में प्रवाहित करने के लिए समर्पित रचनाकारों की खोज में वे लग गए। पंडित माखनलाल चतुर्वेदी, पंडित द्वारका प्रसाद मिश्र, सेठ गोविन्द दास, लक्ष्मीधर वाजपेयी जैसे कवि-सम्पादक-साहित्यकारों को सप्रेजी ने तैयार किया था।

वैचारिक प्रतिभाओं को परखना, उनकी मंडली बनाना, फिर बौद्धिक क्षत्रिय के रूप में उन्हें तैयार करना, यह उनकी विशेषता थी। इस तरह एक ओर उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम के लिए समर्पित कार्यकर्ताओं का निर्माण किया, वहीं दूसरी ओर उन्होंने हिन्दी साहित्य को समृद्ध करने के लिए सुधी साहित्यकार तथा जन जागरण के लिए प्रखर पत्रकारों को गढ़ा। देशकार्य की दृष्टि से यह उनका बहुत बड़ा योगदान है। कर्मवीर का प्रकाशन सप्रेजी की प्रेरणा से हुई और उसके सम्पादक के रूप में माखनलाल चतुर्वेदी जैसा तेजस्वी सम्पादक हिन्दी जगत प्राप्त हुआ।

पंडित माखनलाल चतुर्वेदी ने वर्ष १९२७ में ‘भरतपुर हिन्दी सम्पादक सम्मेलन’ के अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा था- “आज के हिन्दी भाषा के युग को आचार्य महावीर प्रसादजी द्विवेदी द्वारा निर्मित, तथा तेज को पंडित माधवरावजी सप्रे द्वारा निर्मित कहना चाहिए।”

‘अनुभव’ सबसे महत्त्वपूर्ण   

वर्ष १९२४ के नवम्बर माह में तीन दिन ‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ का पन्द्रहवां अधिवेशन देहरादून में हुआ। इस सम्मेलन की अध्यक्षता पंडित राधाचरण गोस्वामी करनेवाले थे किन्तु किन्हीं कारणों से गोस्वामीजी नहीं आ सके। तब स्वागत समिति ने श्रेष्ठता और वरिष्ठता के आधार पर पंडित माधवराव सप्रे को सभापति बनाने का निर्णय लिया। इस सम्मेलन के आरम्भिक वक्तव्य में सप्रेजी ने राष्ट्रभाषा हिन्दी को अपने जीवन में ही सर्वोच्च आसन पर देखने की अभिलाषा व्यक्त की। सप्रेजी का मानना था कि ‘अनुभव’ ही सबसे बड़ी शक्ति है। हम कौन हैं? हम किस अवस्था में हैं और हमें कैसा बनना है? प्रत्येक देशवासी को इस बात पर विचार करना चाहिए।

इसी सम्मेलन के समापन सत्र में सभापति के रूप में पंडित सप्रे ने कहा- “जैसे नाटक के भिन्न-भिन्न पात्र रूप धर कर आते हैं और अपना कर्तव्य करके चले जाते हैं। वास्तव में, उनका मूल स्वरूप कुछ और ही होता है, परन्तु पराधीनता में आकर उनको दूसरे का कर्तव्य करना होता है। वे जिस प्रकार पराधीनता का अनुभव करते हैं, उसी प्रकार देवियों, भाइयों, आप भी इस पराधीनता का अनुभव करें, और इस बात का प्रण करें कि हम इस पराधीनता को अवश्य दूर करेंगे, इन पराधीनता की शृंखलाओं में हमको सुख नहीं मिल सकता। पराधीनता की जंजीरों को तोड़ने के लिए अनेक साधन हैं। उनमें हिन्दी भाषा का प्रचार करना एक मुख्य साधन है।” सभापति सप्रेजी का कितना महत्त्वपूर्ण और मार्मिक सन्देश था यह!

माखनलाल चतुर्वेदी ने ११ सितम्बर, १९२६ के ‘कर्मवीर’ में लिखा था, “पिछले पच्चीस वर्षों तक पं. माधवराव सप्रेजी हिन्दी के एक आधार स्तम्भ, साहित्य, समाज और राजनीति की संस्थाओं के सहायक उत्पादक तथा उनमें राष्ट्रीय तेज भरनेवाले, प्रदेश के गांवों में घूम घूम कर, अपनी कलम को राष्ट्र की जरूरत और विदेशी सत्ता से जकड़े हुए गरीबों का करुण क्रंदन बना डालनेवाले, धर्म में धंस कर, उसे राष्ट्रीय सेवा के लिए विवश करनेवाले तथा अपने अस्तित्व को सर्वथा मिटा कर, सर्वथा नगण्य बना कर अपने आसपास के व्यक्तियों और संस्थाओं के महत्त्व को बढ़ाने और चिरंजीवी बनानेवाले थे।”

राम ही कर्ता

कार्य में वे अग्रणी रहते हैं और प्रशंसा के अवसर पर सबसे पीछे दिखाई देते हैं। समर्थ रामदास कहते हैं –

मी  कर्ता  ऐसें  म्हणसी। तेणें तूं  कष्टी  होसी।

राम कर्ता म्हणतां पावसी। येश कीर्ती प्रताप॥३६॥

अर्थात यदि तू कहेगा कि मैं कर्ता हूँ तो तुझे कष्ट होगा और यदि कहेगा कि राम कर्ता है तो तू यश, कीर्ति और प्रताप पाएगा।

सप्रेजी कार्य करते चले गए पर कभी उन्होंने इसका श्रेय नहीं लिया। वे लोक प्रशंसा और आत्मप्रशंसा से दूर ही रहे। वे जानते हैं कि जो कार्य उनसे हो रहा है वह स्वयं उनका किया नहीं है, बल्कि ईश्वर उनसे करवा रहा है। वे ईश्वरीय कार्य के मात्र एक माध्यम हैं।

सप्रेजी ने अध्यात्म, राष्ट्रीयता और सामाजिक कर्तव्य का बोध कराने के लिए पत्रकारिता और साहित्य क्षेत्र में ‘मनुष्य-निर्माण’ का बहुत महान कार्य किया, फिर भी उनका नाम और उनके काम से जन सामान्य आज भी अनभिज्ञ दिखाई देते हैं। ऐसा क्यों है, इस प्रश्न की मीमांसा करते हैं तो प्रतीत होता है कि साहित्यिक क्षेत्र और शिक्षा जगत में सप्रेजी के कार्यों के प्रचार के प्रति उदासीनता रही होगी। साहित्यिक समाज नए प्रयोगों और विधाओं के क्षेत्र में आगे बढ़ता ही गया जो कि उसके लिए आवश्यक भी था। किन्तु सप्रेजी ने ‘दासबोध’ जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रंथ का अनुवाद राष्ट्र के जिस बृहद हिन्दीभाषी समाज के लिए किया था उसका प्रचार और प्रसार उस दृष्टि से हुआ न सका। इस ग्रंथ के प्रथम प्रकाशन के समय भी बहुत विलम्ब हुआ था। स्वयं सप्रेजी ने इस ग्रंथ की भूमिका में इसका उल्लेख किया था। सप्रेजी बताते हैं कि उन्होंने कई प्रकाशकों से सम्पर्क किया पर कोई भी इस अनुवादित ग्रंथ को छापने के लिए तैयार नहीं था। कोई कहता कि हमारे पास काम बहुत है इसलिए इसे ग्रंथ को छापने का समय नहीं है। कोई कहता कि “आप राजनीतिक मामलों में सरकार के संशयास्पद हैं, इसलिए आपकी लिखी पुस्तक हमारे छापखाने में छापी नहीं जा सकती।”

सप्रेजी लिखते हैं, “तीसरे ने कहा, ‘यदि आप कोई किस्सा-कहानी, उपन्यास या नाटक लिखें तो हम आपकी पुस्तकें प्रसन्नतापूर्वक प्रकाशित करेंगे और आपको उनके बदले में कुछ द्रव्य मिल जाया करेगा, क्योंकि आजकल हिन्दी में ऐसी ही पुस्तकों की छह और विक्री अधिक है’।

वर्तमान दौर में जब पंडित माधवराव सप्रेजी के योगदान की चर्चा हो रही है तो यह बहुत अच्छा संकेत है। उनके द्वारा अनुवादित ग्रंथ ‘दासबोध’, ‘गीता रहस्य’ और ‘महाभारत-मीमांसा’ का महत्त्व भी समाज तक फैलेगा। सप्रेजी द्वारा लिखी गई एक मार्मिक पुस्तक ‘जीवन-संग्राम में विजय-प्राप्ति के कुछ उपाय’ को पुनः प्रसारित किया जा सकेगा। सरल और बोधगम्य शैली में लिखा गया यह पुस्तक ‘चरित्र-निर्माण’ पर केन्द्रित है। यह पुस्तक शालेय तथा महाविद्यालयीन विद्यार्थियों की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है।

‘जीवन-संग्राम’ में विजयी होने के लिए राष्ट्र के प्रत्येक व्यक्ति को बलवान, शीलवान, बुद्धिमान और विवेकी होना होगा। गुणों को अर्जित कर सभी को अपनी क्षमताओं का विकास करना होगा। मनुष्य के विकास से ही राष्ट्र का विकास होता है। पंडित माधवराव सप्रे ने इसलिए दासबोध, गीता रहस्य और महाभारत-मीमांसा का अनुवाद किया, इसलिए उन्होंने ‘जीवन-संग्राम में विजय-प्राप्ति के कुछ उपाय’ पुस्तक लिखी। इन पुस्तकों का अध्ययन करने पर सप्रेजी के वैचारिक अधिष्ठान के महत्त्व को समझा जा सकता है।

॥जय जय रघुवीर समर्थ॥

१) माधवराव सप्रे का महत्त्व : मैनेजर पाण्डेय https://web.archive.org/

२) दासबोध (श्री समर्थ रामदास स्वामी कृत) का अनुवाद, पंडित माधवराव सप्रे, पृष्ठ ११           

३)दासबोध (श्री समर्थ रामदास स्वामी कृत) का अनुवाद, पंडित माधवराव सप्रे, भूमिका, पृष्ठ १

४) दासबोध (श्री समर्थ रामदास स्वामी कृत) का अनुवाद, पंडित माधवराव सप्रे, दसवां समास-निस्पृह का बर्ताव, पृष्ठ ३१६ 

५) दासबोध (श्री समर्थ रामदास स्वामी कृत) का अनुवाद, पंडित माधवराव सप्रे, पृष्ठ ३४  

६) दासबोध (श्री समर्थ रामदास स्वामी कृत) का अनुवाद, पंडित माधवराव सप्रे, भूमिका, पृष्ठ ३

– लखेश्वर चन्द्रवंशी ‘लखेश’

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में प्रकाशित किया गया था लेख, विशेष

ध्येय-पथ के साथी आनंदजी

सुबह-सुबह घर आकर द्वार खटखटाते और कहते, “लखेश भैया, चलो भाई घूमकर आते हैं?” और फिर हम टहलने निकल जाते। एक दूसरे का हाल-चाल जानते और फिर चर्चा शुरू होती संगठन, देश, धर्म, समाज, परिवार और बहुत सी बातें। मैं अपनी हर बात उन्हें बताता और वे भी अपनी बात खुलकर कहते। वे अपने व्यवसाय के सम्बन्ध में बताते और मैं कबीर साहित्य और रामकृष्ण-विवेकानन्द भावधारा। …हममें बहुत घनिष्ठता थी। इतनी घनिष्ठता कि घंटों बैठकर हम बातें करते। नागपुर के अनेक नाश्ता सेंटर जहां हम दोनों की महफिल लगती। कई बार नियोजन करके किसी युवा को वहीं नाश्ता करने बुला लिया करते और फिर चर्चा करते – केन्द्र कार्य को कैसे बढ़ाया जाए? क्या-क्या करना चाहिए? तय किये उसे सिद्ध कैसे करें? ऐसे ध्येयनिष्ठ कार्यकर्ता और केन्द्र के विदर्भ विभाग के प्रमुख श्री आनंद कैलाश बगड़ियाजी नहीं रहे। गत 27 दिसम्बर, 2020 को उनका निधन हो गया। वे ४८ वर्ष के थे। उनके अचानक चले जाने से देशभर के उन्हें जाननेवाले, विशेषकर विदर्भ के कार्यकर्तागण अत्यन्त दुःखी हैं।

वर्ष 2004 में विवेकानन्द केन्द्र की नागपुर शाखा द्वारा आरोही वर्ग का आयोजन किया गया था। अपनी बालिका कुमारी नंदिनी को इस वर्ग में सहभागी करवाने के लिए आनंदजी पहली बार केन्द्र कार्यालय आए थे। उस दौरान संस्कार वर्ग शिक्षक के नाते मेरे पास इस वर्ग की जिम्मेदारी थी। वर्ग के समाप्त होते ही प्राणायाम और योग सत्र का आयोजन हुआ और आनंदजी इस माध्यम से केन्द्र से जुड़े।

मैंने आनंद साहब को देखा है, और कार्यकर्ता आनंदजी को भी देखा है। एक बार वैचारिक स्पष्टता होने के बाद व्यक्ति कैसे अपने को ३६० डिग्री तक बदल कर रख देता है उसका आदर्श उदाहरण आनंदजी का जीवन है। कड़ी मेहनत और व्यवस्थित नियोजन से आनंदजी ने बहुत कम आयु में अपने व्यवसाय के क्षेत्र में नाम कमाया। एक ईमानदार और उत्तम व्यक्तित्व वाले आनंदजी की समझ औरों से बहुत अधिक था। वे सबका भार अपने ऊपर ले लेते थे। उनका हृदय बहुत विशाल था। वे कार्यकर्ताओं की फिक्र करते थे, उनके दुःख-सुख में उनके साथ तन-मन-धन से खड़े होते थे। उनकी यह उपस्थिति कार्यकर्ता में विश्वास भरने के लिए पर्याप्त था कि हमारे साथ आनंदजी हैं।

उल्लेखनीय है कि आनंदजी ने प्रीमियर लॉजिस्टिक नामक कंपनी बनाई है तथा वे उसके मुखिया थे। प्रारम्भ में वे कार्य के लिए समय नहीं दे पाते थे। यह सच भी है कि ट्रांसपोर्ट का क्षेत्र बहुत जिम्मेदारीवाला होता ही है। कई बार मुझसे मिलकर कहा करते, “भैया, मैं समय निकाल नहीं पाता। मुझे बहुत दुःख होता है।“

समय नहीं निकाल पाने का उन्हें बहुत खेद होता था। कई बार बेचैन हो जाते और फिर घर मिलने आते। कभी कहीं और स्थान पर बुलाते। और फिर चर्चा होती। आनंदजी जब नागपुर के नगर प्रमुख थे तब मेरे पास सहनगर प्रमुख का दायित्व था। हमारी जोड़ी जोरदार थी – वे बिजनेस मैन और मैं महविद्यालय का छात्र। वे केन्द्र में नए थे और मैंने बचपन गुजारा था। कभी स्वामीजी की जयन्ती जैसे कार्यक्रम होता तो नगर प्रमुख के नाते उन्हें ही बोलना होता था। वे सुबह-सुबह घर आते।

“भैया, थोड़ी मेरी तैयारी करा दो न?”- आनंदजी कहते। और फिर कागज-पेन लेकर वहीं स्क्रिप्ट बना देते। पर आनंदजी का उत्साह देखिए, “केन्द्र की बात रखनी है तो उसकी तैयारी व्यवस्थित होनी चाहिए। वे पूरी तैयारी करते थे मन लगाकर।” कार्यक्रम हुआ और अगले दिन पूछते – “कैसा हुआ भैया? मैं ठीक बोल पाया कि नहीं।“ ऐसे थे आनंदजी। बेहद सरल, सहज और उन्मुक्त।              

कुछ जानने के लिए, कुछ सीखने के लिए, कुछ समझने के लिए वे सदैव तत्पर रहते थे। वे कभी संकोच नहीं करते थे और हर किसी से कुछ न कुछ सीखते, समझते और कुछ कहे बिना बहुत बार समझा जाते थे। उदाहरणार्थ – हम कार्यकर्ता किसी भी कार्यकर्ता के सम्बन्ध में नाम लेकर बोलते हैं – मंगेश, नमित, पंकज, वैदेही आदि। और आनंदजी कहते – मंगेश भैया, नमित भैया, पंकज भैया, वैदेही ताई। आयु में कितने भी छोटे कार्यकर्ता क्यों न हो, वे उनके नाम के साथ भैया और दीदी जोड़ते थे। आनंदजी कार्यकर्ताओं के गुणों की चर्चा करते थे, उन्हें प्रोत्साहित करते थे। और यह अनुभव करा देते थे कि तुम कार्य करो हम तुम्हारे साथ हैं।

एक दिन तो गजब हुआ। वे घर आए और उन्होंने देखा कि एक छोटी बच्ची ६-७ वर्ष की, बर्तन माँज रही थी। थोड़ी देर के बाद एक माँ, बड़ी बाल्टी में पानी लेकर जा रही थी और उसके साथ एक ४-५ साल की बच्ची छोटी बाल्टी लेकर अपनी माता का साथ दे रही थी। आनंदजी चारों ओर देख रहे थे। बोल पड़े, “लखेश भैया, झोपड़पट्टी (बस्ती) बोलकर लोग उपहास करते हैं लेकिन यहाँ तो शिविर चल रहा है। हर छोटी बेटी, छोटा बेटा देखो कैसे अपने माँ के काम में हाथ बंटा रहा है। सीखने लायक है। बड़े घरों में तो जवान होने के बाद भी बेटियाँ चाय तक नहीं बना पातीं।“ ऐसा कहते हुए वे गम्भीर हो गए।

मैंने कहा, “तो भैया ये उदाहरण तो मैंने नोट कर लिया है। आप भी जब अवसर मिले, बताइएगा जरूर।“ और उनके चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई।       

स्वामी विवेकानन्द सार्ध शती समारोह के समय आनंदजी ने बढ़-चढ़ कर, बहुत सक्रियता से समन्वय बनाया। संघ और संघ परिवार के विविध संगठन तथा अन्य सामाजिक मंडलों से उनका गहन सम्पर्क था। कालान्तर में जब केन्द्र के हिन्दी प्रकाशन विभाग के प्रबंध सम्पादक का दायित्व मेरे पास आया तो हमारा नित्य रूप से मिलना कम हो गया। कभी मेरा प्रवास तो कभी उनका। एक दिन अपने घर पर बुलाया और कहा, “भैया, विदर्भ में प्रवास तो चल रहा है। भारतीय संस्कृति परीक्षा भी हो गई है और शिविर भी होनेवाले हैं।“

मैंने कहा, “वाह! ये तो बहुत बढ़िया काम हो रहा है।“

वे गम्भीर हो गए और फिर बोले, “युवा सम्पर्क में आते हैं, पर उन्हें संगठन से जोड़कर रखना दुष्कर कार्य है। पहले कुछ करना था तो मैं थोड़ा निश्चिन्त हो जाता था कि नागपुर है, यहाँ तो कार्यकर्ता है ही। पर विदर्भ में काम बढ़ना है, इसलिए प्रवास करनेवाले लोग चाहिए।”

मैंने कहा, “आप सही कह रहे हैं। अपन प्रयत्न करेंगे तो हो ही जाएगा।“

वे हँसे और बोले, “शिविर है। युवा आनेवाले हैं। गीत होगा, व्याख्यान होंगे, कार्यशालाएं होंगी, कृति गीत होंगे।“ वे बोल रहे थे और उनके चेहरे पर चमक आ गई।

नाश्ता का प्लेट थमाते हुए बोले, “तो भैया, मैंने सोचा विदर्भ के कार्यकर्ताओं में चेतना फूंकनी है तो अपना ब्रम्हास्त्र चला दूँ।“

मैं हँस पड़ा, “ब्रम्हास्त्र! कौन सा ब्रम्हास्त्र?”

वे बोले, “अरे, मैं आपको बोल रहा हूँ। चलो भाई अमरावती चलना है।“

मैं हँस पड़ा, और उनसे कहा, “ब्रम्हास्त्र कहिए या अग्निमंत्र, ये तो स्वामी विवेकानन्द के विचार ही हो सकते हैं। माननीय भानुदासजी कहते हैं कि स्वामीजी को लोगों तक पहुँचाओ और बाकी काम स्वामीजी स्वयं कर लेंगे।“

ऐसा सुनते ही आनंदजी एकदम खुश हो गए, और उन्होंने मेरा हाथ कसकर पकड़ लिया। ऐसा विश्वास, ऐसा भरोसा वे हर कार्यकर्ता पर करते थे।  

विदर्भ विभाग प्रमुख के नाते वे बहुत समय देते थे। प्रवास करते थे। घंटों कार्यकर्ताओं से चर्चा करते थे। उनका सम्पर्क भी तगड़ा था। उन्होंने अपने परिवार के हर सदस्य को केन्द्र कार्य से जोड़ा था। प्रत्येक परिवार जन का कुछ न कुछ योगदान केन्द्र कार्य में होना चाहिए, ऐसा उनका मानना था और वे इसके लिए पूरा प्रयत्न करते थे।   

अपनी एक कमी को लेकर उन्हें खेद था। वे व्यक्तिगत रूप से मुझसे कहते थे, “भैया, मेरे दिमाग में बहुत से विचार चलते रहते हैं। पर जब कोई अधिकारी मुझे व्याख्यान देने के लिए कहते हैं तो पता नहीं क्या हो जाता है कि विचार रहने के बावजूद बोल नहीं पाता हूँ।“

मैंने कहा, “भैया, आपका अध्ययन और चिन्तन अधिक है। और आप मराठी, हिंदी और अंग्रेजी का एक साथ प्रयोग करते हैं। इसलिए आगे कैसे बोलूँ, इस बात को लेकर ठठक जाते होंगे।“

उन्होंने कहा, “हाँ भैया, ऐसा ही होता है। पर करे तो करें क्या?”

मैंने कहा, “कल आपको कुछ बोलना है क्या?”

उन्होंने कहा, “हाँ, कृति संकल्प का सत्र लेना है।“

मैंने कहा, “बहुत बढ़िया। क्या-क्या करणीय कार्य है? कितने समय में साध्य करना है? कैसे-कैसे करना है? कौन-कौन इस कार्य को करेगा? यही सब तो बताना होगा न?” वे मुस्कुराए। अगले दिन जब शिविर में उन्होंने यह सत्र लिया तो २५ मिनट धारा प्रवाह मराठी में बोले। शिविर समाप्त होते ही उनका हाथ पकड़ कर, मारे खुशी के मैं बोला, “भैया वाह, आज तो मजा आ गया। आपने बहुत अच्छे से और प्रभावी ढंग से बताया।“ उनके चेहरे पर संतोष का भाव था।

इसके बाद अनेक शिविरों और बैठकों में वे अपनी बात बहुत प्रभावी रीति से रखने लगे। जितना गम्भीर चिन्तन, उतना ही गम्भीर और प्रभावशाली वक्तव्य। मुझसे अनेक बार उन्होंने कहा, “भैया, विदर्भ में कम से कम एक सेवा प्रकल्प तो हर हाल में चाहिए ही। एक नागपुर और वर्धा के बीच में और एक टिमटाला (अमरावती) में। सोचता हूँ वह दिन कब आएगा?”  

‘स्वामी विवेकानन्द समग्र जीवन दर्शन’ के सम्पादन के समय जब सुबह के समय टहलने निकलते तो वे कहते, “भैया, स्वामी विवेकानन्द के जीवन के प्रेरक प्रसंग और विचारों के अमृत के दो-चार बूंदों का रसपान मुझे भी करा दिया कीजिए।“

मित्र बहुत हैं पर स्वामी विवेकानन्द की वाणी का इतना अनुरागी व्यक्ति शायद ही मेरे सम्पर्क में आया हो। चलते-फिरते, बोलते-बताते हर बार केन्द्र कार्य, कार्यकर्ता और स्वामी विवेकानन्द यही विषय होता था उनके बोलने का। उल्लेखनीय है कि आनंदजी भगवद्गीता, जीवन विकास, प्रबुद्ध भारत और केन्द्र की पत्रिकाओं को पढ़ते थे। जब भी कुछ अच्छा पढ़ने को मिलता तो वे तुरन्त सम्पर्क करते और बताते। कई बार वे कहते थे, “इस जनम में तो अध्ययन पूरा नहीं होगा। कई जनम लेने पड़ेंगे।“

अभी कोरोना काल में अंतिम बार फोन पर जब बात हुई तो वे बड़े उत्साह में थे।

मैंने कहा, “कैसे हो भैया?”

वे बोले, “पॉजिटिव्ह हूँ, कोरोना पॉजिटिव्ह। पर ये तो ठीक हो ही जाएगा। अरुणाचल चलना है अखिल भारतीय अधिकारी बैठक में। राजस्थान होकर जाओगे या यही से चलोगे?…” और वे खाँसने लगे।

मैंने कहा, “भैया, बुखार ठीक हो गया न? और अभी कैसा लग रहा है?”

उन्होंने कहा, “कफ है, खाँसते समय छाती में दर्द होता है?”

मैंने कहा, “खयाल रखिए और डॉक्टर को अवश्य दिखाइए।“

बोले, “दवाई चल रही है। ठीक हो जाएगा। नियति का खेल है।“

और कोरोना मुक्त होने के बाद सच में नियति अपना खेल, खेल गई। मस्तिष्क विकार, फिर सर्जरी के बाद उनका निधन हो गया। आज भी मेरी आँखों में, उनका खिलखिलाता चेहरा दिखता है। उनके हृदय की विशालता, सरलता और सहृदयता का स्मरण करते ही आँखें भर आती है, हृदय द्रवित हो जाता है। उनकी धर्मपत्नी किरण भाभी जो कि केन्द्र कार्य में सक्रिय है, उनके दोनों बच्चे कुमारी नंदिनी और मधुर भी वर्ग से जुड़े हैं। बगड़िया परिवार और उनके संबंधी अग्रवाल व चौधरी परिवार भी केन्द्र के शुभचिन्तक हैं। ऐसा सम्भव हो सका आनंदजी के मधुर सम्पर्कों और निरन्तर प्रयत्नों से।

राष्ट्र पुनरुत्थान के ध्येयपथ का सबसे निकटतम साथी, मित्र तथा बड़े भैया आनंदजी के जाने का दुःख है। उनके जीवन, विचारों और व्यवहार ने मेरे जैसे अनेक युवा तथा वरिष्ठ कार्यकर्ताओं को प्रेरणा दी है। सदैव हँसमुख, मिलनसार और प्रथम भेंट में ही सम्पर्कित व्यक्ति का मन जीतनेवाले – आनंदजी को विवेकानन्द केन्द्र परिवार की ओर से विनम्र श्रद्धांजलि।

– लखेश्वर चंद्रवंशी ‘लखेश’

में प्रकाशित किया गया था लेख, विशेष

मनुष्य निर्माण से ही लोकतंत्र मजबूत होगा

२६ जनवरी, भारतीय गणतंत्र दिवस है। इस दिन को हम बड़े उत्साह से मनाते हैं क्योंकि इसी दिन स्वतंत्रता के बाद सन १९५० को संविधान लागू हुआ था। देश की शासन व्यवस्था, निर्णय प्रक्रिया और न्याय प्रणाली संविधान के आधार पर कार्य करे, यह अनिवार्य तत्व है। संसद से लेकर सड़क तक आज लोकतंत्र और संविधान की चर्चा होती है। राजनीतिक दांवपेच अथवा वाद-विवाद के बीच नेता, बुद्धिजीवी और विचारक इसी “लोकतंत्र या संविधान” का दृष्टान्त देते हुए दिखाई देते हैं। पर वास्तव में लोकतंत्र क्या है? इसके निहितार्थ क्या है? इसपर भी गहराई से सोचने की आवश्यकता है।

२६ जनवरी, भारतीय गणतंत्र दिवस

अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने कहा था,“लोगों के हित के लिए लोगों द्वारा लोगों का शासन” लोकतंत्र है। पर हम देखते हैं कि लोगों द्वारा जन प्रतिनिधि तो निश्चित रूप से चुन लिया जाता है किन्तु इस बात की कोई गारंटी नहीं कि वह लोगों के हित के लिए कार्य करे। फिल्मों में भी प्रायः राजनेता को भ्रष्ट और अपराधी के रूप में दिखाया जाता है। अनेकबार ऐसा भी होता है कि अपराधी वृत्ति के लोग भी चुनाव जीतकर नेता बन जाते हैं। ऐसे में पहला मौलिक प्रश्न यह उपस्थित होता है कि अपराधी व्यक्ति आखिर नेता के रूप में कैसे चुन लिये जाते हैं? इसका क्या कारण है? तो जिस क्षेत्र में उस व्यक्ति का उचित-अनुचित इतना अधिक प्रभाव या दबाव होता है कि वहाँ की जनता उन्हें चुनने के लिए विवश होती है या फिर उसके विरुद्ध कोई ठोस प्रत्याशी नहीं होता, या फिर उसका कोई विकल्प नहीं होता।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय का कथन है, “लोकतंत्र लोक-कर्तव्य के निर्वाह का एक साधन मात्र है। साधन की प्रभाव-क्षमता लोकजीवन में राष्ट्र के प्रति एकात्मता, अपने उत्तरदायित्व का भान तथा अनुशासन पर निर्भर है।“ अतः एक मजबूत, स्वस्थ और आदर्श लोकतंत्र की स्थापना के लिए आदर्श सामाजिक वातावरण चाहिए। कोई व्यक्ति किसी पद के लिए ‘कितना योग्य है’ इसका विवेक जन सामान्य में होना चाहिए। इसके लिए समाज के प्रत्येक व्यक्ति का सक्रियता और जागरूकता आवश्यक है। ऐसा तभी सम्भव है जब समाज में सज्जन-शक्ति का विस्तार हो और सज्जन-शक्ति का विस्तार का आधार केवल और केवल “मनुष्य निर्माण” है। स्वामी विवेकानन्द ने “मेरी क्रान्तिकारी योजना” शीर्षक से मद्रास (अब चेन्नई) में व्याख्यान दिया था। इस व्याख्यान में जोर देते हुए स्वामीजी ने कहा था, “हमें ऐसे धर्म की आवश्यकता है, जिससे हम मनुष्य बन सकें। हमें ऐसे सिद्धांतों की आवश्यकता है, जिससे हम मनुष्य बन सकें। हमें ऐसी सर्वांग-सम्पन्न शिक्षा की आवश्यकता है जो हमें मनुष्य बना सके।“

मनुष्य निर्माण यानी चरित्र का निर्माण। चरित्र बनता है – विवेक से, सत्संगति से, स्वाध्याय से, आत्मीयता से, समाजाभिमुख होने से। विवेकानन्द केन्द्र “मनुष्य निर्माण और राष्ट्र पुनरुत्थान” के महान उद्देश्य को लेकर कार्य कर रहा है। केन्द्र वर्ग, योग वर्ग, संस्कार वर्ग, स्वाध्याय वर्ग, विविध प्रकल्पों और विभिन्न गतिविधियों के माध्यम से विवेकानन्द केन्द्र “चरित्रवान पीढ़ी का निर्माण” कर मानवीय मूल्यों की स्थापना में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। आइए, विवेकानन्द केन्द्र के माध्यम से समाज में वैचारिक जागरण कर सज्जन-शक्ति के विस्तार में योगदान दें जिससे कि आदर्श लोकतंत्र की नींव मजबूत हो सके।

– लखेश्वर चंद्रवंशी ‘लखेश’

में प्रकाशित किया गया था लेख, विशेष

उपन्यास सम्राट “मुंशी प्रेमचन्द”

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(31 जुलाई, जयंती पर विशेष)

हिन्दी कथा-साहित्य को चमत्कारिक कहानियों के झुरमुट से निकालकर जीवन के यथार्थ की ओर मोड़कर ले जानेवाले महान साहित्यकार थे मुंशी प्रेमचंद। प्रेमचंद न केवल भारत, बल्कि दुनियाभर के विख्यात और सबसे अधिक पसंद किए जाने वाले रचनाकारों में से एक हैं। प्रेमचंद की कथानक के नायक सामान्य मनुष्य होते हैं। उनकी कहानियों में जन सामान्य की समस्याओं और जीवन के उतार-चढ़ाव को दिखाया गया है।

 प्रेमचंद का नाम वास्तविक नाम धनपत राय था। उनका जन्म ग्राम लमही (वाराणसी, उत्तर प्रदेश) में 31 जुलाई, 1880 को हुआ था। घर में उन्हें नवाब कहते थे। उत्तर प्रदेश तथा दिल्ली के निकटवर्ती क्षेत्र में मुस्लिम प्रभाव के कारण बोलचाल में प्रायः लोग उर्दू का प्रयोग करते थे। उन दिनों कई स्थानों पर पढ़ाई भी मदरसों में ही होती थी। प्रेमचंद जब 6 वर्ष के थे, तब उन्हें लालगंज गांव में रहने वाले एक मौलवी के घर फारसी और उर्दू पढ़ने के लिए भेजा गया। 13 वर्ष की अवस्था तक वे उर्दू माध्यम से ही पढ़े। इसके बाद उन्होंने हिन्दी पढ़ना और लिखना सीखा।

प्रेमचंद जब बहुत ही छोटे थे, बीमारी के कारण उनकी माँ का देहांत हो गया। उन्हें प्यार अपनी बड़ी बहन से मिला। बहन के विवाह के बाद वे अकेले हो गए। सुने घर में उन्होंने खुद को कहानियां पढ़ने में व्यस्त कर लिया। आगे चलकर वह स्वयं कहानियां लिखने लगे और महान कथाकार बने।

धनपत राय का विवाह 15-16 बरस में ही कर दिया गया, लेकिन ये विवाह उनको फला नहीं और कुछ समय बाद ही उनकी पत्नी का देहांत हो गया। कुछ समय बाद वर्ष 1898 में कक्षा दस उत्तीर्ण कर वे चुनार में सरकारी अध्यापक बन गए। बाद में उन्होंने एक बाल विधवा शिवरानी देवी से विवाह किया, जिन्होंने प्रेमचंद की जीवनी लिखी थी।

आगे चलकर उनकी नियुक्ति हमीरपुर में जिला विद्यालय उपनिरीक्षक के पद पर हो गई। इस दौरान उन्होंने देशभक्ति की अनेक कहानियां लिखकर उनका संकलन ‘सोजे वतन’ के नाम से प्रकाशित कराया। इसमें उन्होंने अपना नाम ‘नवाबराय’ लिखा था। जब शासन को इसका पता लगा, तो उन्होंने नवाबराय को बुलवा भेजा। जिलाधीश ने उन्हें इसके लिए बहुत फटकारा और पुस्तक की सब प्रतियां जब्त कर जला दीं। जिलाधीश ने यह शर्त भी लगाई कि उनकी अनुमति के बिना अब वे कुछ नहीं लिखेंगे। नवाबराय लौट तो आए, पर बिना लिखे उन्हें चैन नहीं पड़ता था।

अपने मित्र मुंशी दयानारायण निगम के सुझाव पर उन्होंने अपना लेखकीय नाम धनपत राय की बजाय ‘प्रेमचंद’ उपनाम रख लिया। प्रेमचंद अब तक उर्दू में लिखते थे, पर अब उन्होंने अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम हिन्दी को बनाया। प्रेमचंद जनता को विदेशी शासकों के साथ ही जमींदार और पंडे-पुजारियों जैसे शोषकों से भी मुक्त कराना चाहते थे। वे स्वयं को इस स्वाधीनता संग्राम का एक सैनिक समझते थे, जिसके हाथ में बंदूक की जगह कलम है। उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन को आधार बनाकर ‘कर्मभूमि’ नामक उपन्यास भी लिखा।

प्रेमचंद हिन्दी के साथ-साथ उर्दू, फारसी और अंग्रेजी पर भी बराबर की पकड़ रखते थे। मुंशी प्रेमचंद स्वामी विवेकानन्द से बहुत प्रभावित थे। उन्होंने उर्दू में स्वामी विवेकानन्द जी के बारे में “स्वामी विवेकानन्द : एक जीवन झांकी” नाम से लेख लिखा था, जो “जमाना” मासिक के मई, 1908 के अंक में प्रकाशित हुआ था। बाद में उन्होंने स्वयं इसका हिन्दी अनुवाद किया। वे बाल गंगाधर तिलक तथा गांधीजी से भी बहुत प्रभावित थे। युवकों में क्रांतिकारी चेतना का संचार करने के लिए उन्होंने स्वामी विवेकानन्द के साथ ही इटली के स्वाधीनता सेनानी मैजिनी और गैरीबाल्डी की छोटी जीवनियां लिखीं। अध्यापन के साथ पढ़ाई करते हुए उन्होंने बीए की डिग्री ली।

शिक्षक की नौकरी के दौरान प्रेमचंद के कई जगह तबादले हुए। उन्होंने जनजीवन को बहुत गहराई से देखा और अपना जीवन साहित्य को समर्पित कर दिया। प्रेमचंद की चर्चित कहानियां हैं- मंत्र, नशा, शतरंज के खिलाड़ी, पूस की रात, आत्माराम, बूढ़ी काकी, बड़े भाईसाहब, बड़े घर की बेटी, कफन, उधार की घड़ी, नमक का दरोगा, पंच फूल, प्रेम पूर्णिमा, जुर्माना आदि। प्रेमचंद्र ने लगभग 300 कहानियां और चौदह बड़े उपन्यास लिखे।

प्रेमचन्‍द के उपन्यास हैं- गबन, बाजार-ए-हुस्न (उर्दू में), सेवा सदन, गोदान, कर्मभूमि, कायाकल्प, मनोरमा, निर्मला, प्रतिज्ञा, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, वरदान, प्रेमा और मंगल-सूत्र (अपूर्ण)। उनके रचे साहित्य का अनुवाद लगभग सभी प्रमुख भाषाओं में हो चुका है, जिसमें विदेशी भाषाएं भी शामिल हैं।

अपनी रचना ‘गबन’ के जरिए से एक समाज की ऊंच-नीच, ‘निर्मला’ से एक स्त्री को लेकर समाज की रूढ़िवादिता और ‘बूढ़ी काकी’ के माध्यम से ‘समाज की निर्ममता’ को जिस अलग और रोचक अंदाज उन्होंने पेश किया, उसकी तुलना नहीं है। इसी तरह से पूस की रात, बड़े घर की बेटी, बड़े भाईसाहब, आत्माराम, शतरंज के खिलाड़ी जैसी कहानियों से प्रेमचंद ने हिन्दी साहित्य की जो सेवा की है, वो अद्भुत है।

सरल और संतोषी स्वभाव के प्रेमचंद की रचनाओं में जन-मन की आकांक्षा प्रकट होती थी। सामान्य बोलचाल की भाषा में होने के कारण उनकी कहानियां आज भी बड़े चाव से पढ़ी जाती हैं। उनके कई उपन्यासों पर फिल्म भी बनी हैं। सत्यजीत राय ने उनकी दो कहानियों पर यादगार फिल्में बनाईं। 1977 में ‘शतरंज के खिलाड़ी’ और 1981 में ‘सद्गति’। के। सुब्रमण्यम ने 1938 में ‘सेवासदन’ उपन्यास पर फिल्म बनाई जिसमें सुब्बालक्ष्मी ने मुख्य भूमिका निभाई थी। 1977 में मृणाल सेन ने प्रेमचंद की कहानी ‘कफन’ पर आधारित ‘ओका ऊरी कथा’ नाम से एक तेलुगू फिल्म बनाई जिसको सर्वश्रेष्ठ तेलुगू फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। 1963 में ‘गोदान’ और 1966 में ‘गबन’ उपन्यास पर लोकप्रिय फिल्में बनीं। 1980 में उनके उपन्यास पर बना टीवी धारावाहिक ‘निर्मला’ भी बहुत लोकप्रिय हुआ था।

अप्रैल 1936 में लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ के अधिवेशन में अपने व्याख्यान के दौरान प्रेमचन्दजी ने कहा, “जिस साहित्य से हमारी सुरुचि न जागे, आध्यात्मिक और मानसिक तृप्ति न मिले, हममें गति और शक्ति न पैदा हो, हमारा सौंदर्य प्रेम न जागृत हो, जो हममें सच्चा संकल्प और कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने की सच्ची दृढ़ता न उत्पन्न करे, वह आज हमारे लिए बेकार है, वह साहित्य कहलाने का अधिकारी नहीं है।”

साहित्य को परिभाषित करते हुए उन्होंने आगे कहा, “हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौंदर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो- जो हममें गति, संघर्ष और बेचैनी पैदा करे, सुलाए नहीं, क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण हैं।” साहित्य के सम्बन्ध में अति उच्च विचार रखनेवाले प्रेमचंद को “उपन्यास सम्राट” के नाम से सर्वप्रथम बंगाल के विख्यात उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने संबोधित किया था।

सन् 1935 में मुंशीजी बहुत बीमार पड़ गए और 8 अक्टूबर, 1936 को 56 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया। साहित्य जगत में मुंशी प्रेमचंद “कलम के सिपाही” तथा “उपन्यास सम्राट” के रूप में जाने जाते हैं।

– लखेश्वर चंद्रवंशी ‘लखेश’

में प्रकाशित किया गया था लेख, विशेष

डॉ. भीमराव रामजी आम्बेडकर : जीवन कार्य 

डॉ. बाबा साहब आम्बेडकर समग्र मानव जाति के अस्तित्व के संघर्ष के लिए समर्पित राजनेता, उत्कृष्ट समाज सेवी, चिन्तक, तेजस्वी वक्ता, कानून विशेषज्ञ, विख्यात अर्थशास्त्री और इन सबसे बढ़कर एक प्रखर राष्ट्रभक्त थे। निश्चित रूप से मानना पड़ेगा कि भयंकर गरीबी और अभावों में एक अस्पृश्य परिवार में जन्मा बालक भारत का विधि विधाता बन गया, यह चमत्कार से कम नहीं था। परन्तु इस चमत्कार के पीछे था एक संघर्षमय जीवन, एक दृढ़ निश्चय। स्वयं गरीबी में जन्मे लेकिन अस्पृश्यों के अपरिमित दुखों को देखकर वे इस व्यवस्था के विरोध में संघर्ष करने के लिए खड़े हो गए। 

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दलितों के मसीहा, संविधान निर्माता, बाबा साहब आदि अनेकों विशेषणों से सम्बोधित किए जानेवाले डॉ. भीमराव रामजी आम्बेडकर का जन्म मध्य प्रदेश के महू में 14 अप्रैल, 1891 को हुआ। भीमराव, रामजी मालोजी सकपाल और भीमाबाई की चौदहवीं संतान थे। वे हिन्दू महार जाति से संबंध रखते थे। उनके पिता भारतीय सेना में सेवारत थे। पिता की स्वानिवृति के बाद उनका परिवार महाराष्ट्र के सतारा में चला गया। उनका बचपन परिवार के अत्यंत संस्कारी एवं धार्मिक वातावरण में बीता था। उनके घर में रामायण, पाण्डव प्रताप, ज्ञानेश्वरी व अन्य संत वांग्मय के नित्य पाठन होते थे, जिसके कारण उन्हें श्रेष्ठ संस्कार मिले। कालान्तर में उनका परिवार मुम्बई में जाकर बस गया। यहीं उन्होंने शिक्षा ग्रहण की। वर्ष 1906 में मात्र 15 वर्ष की आयु में उनका विवाह नौ वर्षीय रमाबाई से कर दिया गया।

शिक्षा :

वर्ष 1908 में उन्होंने बारहवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की। विद्यालय की शिक्षा पूर्ण करने के बाद उन्होंने बॉम्बे के एल्फिनस्टोन कॉलेज में दाखिला लिया। उन्हें वड़ोदरा के महाराज सयाजीराव गायकवाड़ से 25 रुपये मासिक की स्कॉलरशिप मिलने लगी थी। वर्ष 1912 में उन्होंने राजनीति विज्ञान व अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि ली। इसके बाद उच्च शिक्षा के लिए वह अमेरिका चले गए। वर्ष 1916 में उन्हें उनके एक शोध के लिए पीएचडी से सम्मानित किया गया। इसके बाद वह लंदन चले गए, किन्तु उन्हें बीच में ही लौटना पड़ा। आजीविका के लिए इस समयावधि में उन्होंने कई कार्य किए। वह मुम्बई के सिडनेम कॉलेज ऑफ कॉमर्स एंड इकोनोमिक्स में राजनीतिक अर्थव्यवस्था के प्राध्यापक भी रहे। इसके पश्चात एक बार फिर वह इंग्लैंड चले गए। वर्ष 1923 में उन्होंने अपना शोध रुपये की समस्याएं’ पूरा कर लिया। उन्हें लंदन विश्वविद्यालय द्वारा डॉक्टर ऑफ साइन्स की उपाधि प्रदान की गई। उन्हें ब्रिटिश बार में बैरिस्टर के रूप में प्रवेश मिल गया। स्वदेश वापस लौटते हुए भीमराव आम्बेडकर तीन महीने जर्मनी में रुके और बॉन विश्वविद्यालय में  उन्होंने अपना अर्थशास्त्र का अध्ययन जारी रखा। उन्हें  8 जून, 1927 कोलम्बिया विश्वविद्यालय द्वारा पीएचडी प्रदान की गई।

बहुआयामी आम्बेडकर :

डॉ. बाबा साहब आम्बेडकर समग्र मानव जाति के अस्तित्व के संघर्ष के लिए समर्पित राजनेता, उत्कृष्ट समाज सेवी, चिन्तक, तेजस्वी वक्ता, कानून विशेषज्ञ, विख्यात अर्थशास्त्री और इन सबसे बढ़कर एक प्रखर राष्ट्रभक्त थे। निश्चित रूप से मानना पड़ेगा कि भयंकर गरीबी और अभावों में एक अस्पृश्य परिवार में जन्मा बालक भारत का विधि विधाता बन गया, यह चमत्कार से कम नहीं था। परन्तु इस चमत्कार के पीछे था एक संघर्षमय जीवन, एक दृढ़ निश्चय। स्वयं गरीबी में जन्मे लेकिन अस्पृश्यों के अपरिमित दुखों को देखकर वे इस व्यवस्था के विरोध में संघर्ष करने के लिए खड़े हो गए।

उन्होंने ‘बहिष्कृत हितकारिणी सभा’ की स्थापना की और इसी के साथ ही दलितों तथा अछूतों के अधिकारों के लिये संघर्ष की लंबी शृंखला प्रारम्भ हो गई। महाड़ में चावदार तालाब से पानी पीने के अधिकार पर आन्दोलनरत डॉ.आम्बेडकर ने प्रश्न उठाया कि जिस तालाब से कुत्ते, बिल्ली, गधे, घोड़े पानी पी सकते हैं, वहां से एक विशेष जाति का मनुष्य पानी नहीं ले सकता, यह कैसी परम्परा है? इसी प्रकार अस्पृश्यों के काला राम मंदिर में प्रवेश को लेकर चले आन्दोलन में हिन्दू समाज को झकझोरते हुए डॉ.आम्बेडकर ने कहा, “मंदिर सार्वजनिक पूजा के स्थान होते हैं। उनसे समूचे हिन्दू समाज की भावना जुड़ी है तब उसमें कुछ हिन्दू प्रवेश करें और कुछ के लिए प्रवेश वर्जित हो, यह बात गले नहीं उतरती। हिन्दू धर्म केवल सवर्णों के लिये नहीं हो सकता, वह तो अछूतों और सवर्णों दोनों के लिए है फिर यह भेदभाव कैसा?”

आजीवन वह दलितों अस्पृश्यों के राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक अधिकारों के लिए संघर्षरत रहे और जब बाबा साहब की अध्यक्षता वाली संविधान निर्मात्री परिषद ने २७ अप्रैल, १९४९ को घोषणा की कि ‘‘सम्पूर्ण भारतवर्ष के अन्दर अस्पृश्यता किसी भी रूप में समाप्त की जाती है और यदि किसी भी प्रकार की अयोग्यता को बलात लाया गया तो दण्डनीय अपराध जाना जाएगा।” तो मानो हजारों वर्षों के पश्चात भारत के इतिहास के सामाजिक पृष्ठ का काला अक्षर सदैव के लिये मिट गया।

यद्यपि बाबा साहब ने हिन्दू धर्म में व्याप्त अस्पृश्यता से दुखी होकर हिन्दू धर्म छोड़ने की घोषणा कर दी थी, फिर भी उनमें बदले की भावना लेशमात्र न थी और वे हिन्दू धर्म तथा देश के प्रति अपना दायित्व समझते थे। वे स्वयं कहते थे, ‘‘यदि वे इस्लाम धर्म स्वीकार करते हैं तो मुसलमानों की संख्या इस देश में दूनी हो जाएगी और मुस्लिम प्रभुत्व का खतरा भी पैदा हो जाएगा। यदि वे ईसाई धर्म स्वीकार करते हैं तो ईसाइयों की संख्या अधिक बढ़ जाएगी और इससे भारत में ब्रिटिश प्रभुत्व सुदृढ़ हो जाएगा।” इस प्रकार डॉ.आम्बेडकर ने अपने धर्मांतरण में भी राष्ट्रभक्ति का परिचय दिया और 14 अक्टूबर, 1956 को विजयादशमी के दिन बौद्धमत का वरण किया। इस समारोह में उन्होंने कहा कि, “अस्पृश्यता के बारे में महात्मा गांधी से मेरा तीव्र मतभेद था, किन्तु मैंने एक बार वचन दिया था कि समय आने पर इस देश को न्यूनतम हानि का मार्ग अपनाऊंगा। अब बौद्धमत अपनाकर मैंने अपना वचन पालन किया है। देश के लिए मेरी यही सेवा है। बौद्धमत भारतीय संस्कृति का ही एक अविभाज्य अंग है। मतांतरण करने से इस देश की संस्कृति, इतिहास, परम्परा को किसी प्रकार की हानि न हो, इस बात पर मैंने तमाम सावधानियां बरती हैं।”

वास्तव में डॉ.आम्बेडकर किसी वर्ग विशेष के नेता न थे। वे सम्पूर्ण भारतवर्ष के और सारी मानवता के पथ प्रदर्शक थे। परन्तु आज अज्ञानतावश और कुछ लोगों ने राजनीतिक स्वार्थवश डॉ.आम्बेडकरजी जैसे महान् व्यक्तित्व को एक छोटे दायरे में बांध दिया है, जो उचित नहीं है। अपमान और कष्ट का जीवन झेलते हुए कुछ नाराजगी भरे शब्द मुख से निकलना अस्वाभाविक तो नहीं था, उन शब्दों को सुनकर ऊंची कही जानेवाली जातियों को नाराज नहीं होना चाहिए, परन्तु उसका यह भी अर्थ नहीं है कि जिन बातों से समाज की आपस की दूरी बढ़नेवाली है, उन्हीं शब्दों को बार-बार लिखा व बोला जाए। जो कुछ समाज में जोड़ने के लिए आवश्यक है उन बातों को विशेष रूप से सामने लाने से ही डॉ.साहब का स्वप्न पूरा हो सकेगा। वास्तव में बाबासाहेब जैसे महान व्यक्ति पूर्ण समाज के हित को लक्ष्य रखकर कार्य करते हैं। समाज की वर्तमान स्थिति को देखकर समाजहित पर आधारित पद्धति अपनाते हैं। उस समय समाज इतना तमस में था कि उन्होंने उन्हें फटकार लगाते हुए संघर्ष का मार्ग अपनाया और समाज को जगाया। लेकिन जब परिस्थिति बदल जाती है तब ऐसे महान पुरुष के हेतु को ध्यान में रखकर योग्य पद्धति अपनाने की आवश्यकता है। नहीं तो कालबाह्य नीति अपनाने से समाज में विद्वेष फैलता है। ऐसा करने से महापुरुषों के आदर्श को हम चोट पहुंचाते हैं। अतः हमारा विवेक सदा ही जाग्रत रहना चाहिए।

स्वतंत्र भारत के संविधान के सूत्रधार डॉ.भीमराव आम्बेडकर ने 14 अक्टूबर, 1956 में बौद्ध धम्म स्वीकार कर बुद्ध मत के अनुयायी बनें। डॉ.आम्बेडकर के साथ महार जाति के अनगिनत लोगों ने भी अपने को बौद्ध धम्म का अनुयायी मान लिया। डॉ.बाबासाहब आम्बेडकर ने अक्टूबर,1956 में बौद्ध धम्म स्वीकार किया और इसके लगभग 2 महीने बाद उनका निधन हो गया। बाबासाहब कुछ और वर्ष जीते तो गरीब, अनपढ़, वंचित, शोषित व पीड़ित दलित समाज को भगवान बुद्ध के संदेशों को सहजता से पहुंचा सकते थे। पर देश का दुर्भाग्य ही है कि बाबासाहब बौद्ध धम्म स्वीकारने के 2 माह के भीतर हो गया।

बुद्ध या मार्क्स :

29 नवम्बर, 1956 काठमांडू (नेपाल) के वर्ल्ड बुद्धिष्ट कोंफेरेंस में डॉ.भीमराव आम्बेडकर ने “बुद्ध या कार्ल मार्क्स” नामक ऐतिहासिक भाषण दिया। इस भाषण में बाबासाहब ने भगवान बुद्ध के पंचशील, अष्टांग मार्ग और अहिंसा व न्याय के संबंध में संकल्पना को स्पष्ट किया। यही नहीं तो उन्होंने सारी दुनिया को बता दिया कि कार्ल मार्क्स के सिद्धांत विश्व का कल्याण नहीं कर सकते। बाबासाहब ने भगवान बुद्ध के समतावादी आदर्श के सामने मार्क्स के साम्यवाद का तुलनात्मक विश्लेषण किया और बता दिया कि भगवान बुद्ध के विचार समाज का उत्थान और विश्व का कल्याण कर सकता है, न कि मार्क्स के सिद्धांत।

डॉ. भीमराव आम्बेडकर ने अपने इस भाषण में कहा, “मार्क्स बहुत आधुनिक और बुद्ध बहुत पुरातन हैं। मार्क्सवादी यह कह सकते हैं कि उनके गुण की तुलना में बुद्ध केवल आदिम व अपरिष्कृत ही ठहर सकते हैं। फिर, दो व्यक्तियों के बीच क्या समानता या तुलना हो सकती है? एक मार्क्सवादी बुद्ध से क्या सीख सकता है? बुद्ध एक मार्क्सवादी को क्या शिक्षा दे सकते हैं? फिर भी इन दोनों के बीच तुलना आकर्षक तथा शिक्षाप्रद है। इन दोनों के अध्ययन तथा इन दोनों की विचारधारा व सिद्धांत में मेरी भी रूचि है। इस कारण इन दोनों के बीच तुलना करने का विचार मेरे मन में आया। यदि मार्क्सवादी अपने पूर्वाग्रहों को पीछे रखकर बुद्ध का अध्ययन करें और उन बातों को समझें जो उन्होंने कही हैं और जिनके लिए उन्होंने संघर्ष किया, तो मुझे यकीन है उनका दृष्टिकोण बदल जाएगा। वास्तव में उनसे (मार्क्सवादी) यह आशा नहीं की जा सकती कि बुद्ध की हंसी व मजाक उड़ाने का निश्चय करने के बाद वे उनकी प्रार्थना करेंगे, परंतु इतना कहा जा सकता है कि उनको यह महसूस होगा कि बुद्ध की शिक्षाओं व उपदेशों में कुछ ऐसी बात है, जो ध्यान में रखने के योग्य और बहुत लाभप्रद है।”

डॉ.आम्बेडकर ने कहा, “बुद्ध का नाम सामान्यतः अहिंसा के सिद्धांत के साथ जोड़ा जाता है। अहिंसा को ही उनकी शिक्षाओं व उपदेशों का समस्त सार माना जाता है। उसे ही उनका प्रारंभ व अंत समझा जाता है। बहुत कम व्यक्ति इस बात को जानते हैं कि बुद्ध ने जो उपदेश दिए, वे बहुत ही व्यापक है, अहिंसा से बहुत बढ़कर हैं।”

भगवान बुद्ध के सिद्धांतों की चर्चा करते हुए आम्बेडकर ने आगे कहा, “मुक्त समाज के लिए पंथ (Religion) आवश्यक है। प्रत्येक पंथ अंगीकार करने योग्य नहीं होता। ईश्वर को पंथ (Religion) का केंद्र बनाना अनुचित है। आत्मा की मुक्ति या मोक्ष को पंथ (Religion) का केंद्र बनाना अनुचित है। पशुबलि को पंथ का केंद्र बनाना अनुचित है। वास्तविक पंथ का वास मनुष्य के हृदय में होता है, शास्त्रों में नहीं। पंथ (Religion) का केंद्र मनुष्य तथा नैतिकता होने चाहिए। यदि नहीं, तो पंथ (Religion) एक क्रूर अंधविश्वास है।” उन्होंने कहा, “पंथ का कार्य विश्व का पुनर्निर्माण करना तथा उसे प्रसन्न रखना है, उसकी उत्पत्ति या उसके अंत की व्याख्या करना नहीं। संसार में दुःख स्वार्थों के टकराव के कारण होता है और इसके समाधान का एकमात्र तरीका अष्टांग मार्ग का अनुसरण करना है।”

भगवान बुद्ध के सिद्धांतों में मानवीय गुणों के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए आम्बेडकर ने कहा, “सभी मानव प्राणी समान हैं। मनुष्य का मापदंड उसका गुण होता है, जन्म नहीं। जो चीज महत्त्वपूर्ण है, वह है उच्च आदर्श, न कि उच्च कुल में जन्म। सबके प्रति मैत्री का साहचर्य व भाईचारे का कभी भी परित्याग नहीं करना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को विद्या प्राप्त करने का अधिकार है। मनुष्य को जीवित रहने के लिए ज्ञान विद्या की उतनी ही आवश्यकता है, जितनी भोजन की। अच्छा आचारणविहीन ज्ञान खतरनाक होता है। युद्ध यदि सत्य तथा न्याय के लिए न हो, तो वह अनुचित है। पराजित के प्रति विजेता के कर्तव्य होते हैं।”

बाबासाहब कहते हैं कि भगवान बुद्ध का सिद्धांत जितना प्राचीन है उतना ही नवीन भी। उनके उपदेश बहुत व्यापक तथा गंभीर हैं। भगवान बुद्ध ने साध्य की प्राप्ति के लिए जो साधन बताए हैं, वह है पंचशील और आर्य अष्टांग मार्ग। जबकि मार्क्स के साम्यवाद के लक्ष्य का साधन हिंसाचार है। बाबासाहब ने दुःख के निराकरण के लिए पंचशील के आचरण को महत्वपूर्ण बताया। भगवान बुद्ध के पंचशील में निम्नलिखित बातें आती हैं :- 1. किसी जीवित वस्तु को न ही नष्ट करना और न ही कष्ट पहुंचाना। 2. चोरी अर्थात दूसरे की संपत्ति की धोखाधड़ी या हिंसा द्वारा न हथियाना और न उस पर कब्जा करना। 3. झूठ न बोलना। 4. तृष्णा न करना। 5. मादक पदार्थों का सेवन न करना।

अष्टांग मार्ग के तत्व इस प्रकार हैं : – 1. सम्यक दृष्टि, 2. सम्यक संकल्प, 3. सम्यक वचन, 4. सम्यक आचरण, 5. सम्यक आजीविका, 6. सम्यक परिरक्षण (प्रयत्न), 7. सम्यक स्मृति, 8. सम्यक समाधि।

आम्बेडकर ने कहा कि “इस आर्य अष्टांग मार्ग का उद्देश्य पृथ्वी पर धर्मपरायणता तथा न्यायसंगत राज्य की स्थापना करना तथा उसके द्वारा संसार के दुःख तथा विषाद को मिटाना है। प्रत्येक व्यक्ति को चाहिए कि वह इन गुणों को अपनी पूर्ण सामर्थ्य के साथ अपने व्यवहार में अपनाए। इन पर आचरण करे। यही कारण है कि इन्हें परिमिता (पूर्णता की स्थिति) कहा जाता है। यही वह सिद्धांत है, जिसे बुद्ध ने संसार में दुःख तथा क्लेश की समाप्ति के लिए अपने बोध व ज्ञान के परिणामस्वरूप प्रतिपादित किया है।”

भगवान बुद्ध और वैशाली सेनाध्यक्ष संवाद महत्त्वपूर्ण :

आम्बेडकर ने अपने इसी भाषण में वैशाली के सेनाध्यक्ष सिंहा सेनापति के साथ भगवान बुद्ध के वार्तालाप का उल्लेख किया। सिंहा ने बुद्ध से पूछा, “भगवन, अहिंसा का उपदेश देते व प्रचार करते हैं। क्या भगवन, एक दोषी को दंड से मुक्त करने व स्वतंत्रता देने का उपदेश देते व प्रचार करते हैं? क्या भगवन यह उपदेश देते हैं कि हमें अपनी पत्नियों, अपने बच्चों तथा अपनी संपत्ति को बचाने के लिए, उनकी रक्षा करने के लिए युद्ध नहीं करना चाहिए? क्या अहिंसा के नाम पर हमें अपराधियों के हाथों कष्ट झेलते रहना चाहिए। क्या तथागत उस समय भी युद्ध का निषेध करते हैं, जब वह सत्य तथा न्याय के हित में हो?”

बुद्ध ने उत्तर दिया, – “मैं जिस बात का प्रचार करता हूं व उपदेश देता हूं, आपने उसे गलत ढंग से समझा है। एक अपराधी व दोषी को दंड अवश्य दिया जाना चाहिए और एक निर्दोष व्यक्ति को मुक्त व स्वतंत्र कर दिया जाना चाहिए। यदि एक दंडाधिकारी एक-एक अपराधी को दंड देता है, तो यह दंडाधिकारी का दोष नहीं है। दंड का कारण अपराधी का दोष व अपराध होता है। जो दंडाधिकारी दंड देता है, वह न्याय का ही पालन कर रहा होता है। उस पर अहिंसा का कलंक नहीं लगता। जो व्यक्ति न्याय तथा सुरक्षा के लिए लड़ता है, उसे अहिंसा का दोषी नहीं बनाया जा सकता। यदि शांति बनाए रखने के सभी साधन असफल हो गए हों, तो हिंसा का उत्तरदायित्व उस व्यक्ति पर आ जाता है, जो युद्ध को शुरू करता है। व्यक्ति को दुष्ट शक्तियों के समक्ष आत्मसमर्पण नहीं करना चाहिए। यहां युद्ध हो सकता है, परंतु यह स्वार्थ की या स्वार्थपूर्ण उद्देश्यों की शर्तों के लिए नहीं होना चाहिए।”

आम्बेडकर कहते हैं कि बुद्ध तानाशाही का बिलकुल समर्थन नहीं करते। वे कहते हैं, “बुद्ध लोकतंत्रवादी के रूप में पैदा हुए थे और लोकतंत्रवादी के रूप में ही मरे। उनके समय में चौदह राजतंत्रीय राज्य थे और चार गणराज्य थे। वह शाक्य थे और शाक्यों का राज्य एक गणराज्य था। उन्हें वैशाली से अत्यंत अनुराग था, जो उनका द्वितीय घर था, क्योंकि वह एक गणराज्य था। उन्होंने महानिर्वाण से पूर्व अपना वर्षावास वैशाली में व्यतीत किया था। अपने वर्षावास के पूरा हो जाने के बाद उन्होंने वैशाली को छोड़कर कहीं और जाने का निश्चय किया, जैसी उनकी आदत थी। कुछ दूर जाने के बाद, उन्होंने मुड़कर वैशाली की ओर देखा और फिर आनंद से कहा, ‘तथागत वैशाली के अंतिम बार दर्शन कर रहे हैं।’ उससे पता चलता है कि इस गणराज्य के प्रति उनका कितना लगाव व प्रेम था।”

भगवान बुद्ध पूर्णतः समतावादी :

आम्बेडकर कहते हैं कि भगवान बुद्ध पूर्णतः समतावादी थे। वे बताते हैं कि एक बार बुद्ध की माँ महाप्रजापति गौतमी ने, जो भिक्षुणी संघ में शामिल हो गई थी, सुना कि बुद्ध को सर्दी लग गई है। उन्होंने उनके लिए एक गुलूबंद तैयार करना तुरंत शुरू कर दिया। इसे पूरा करने के बाद वह उसे बुद्ध के पास ले गईं और उसे पहनने के लिए कहा, परंतु उन्होंने यह कहकर इसे स्वीकार करने से इंकार कर दिया कि यदि यह एक उपहार है, तो उपहार समूचे संघ के लिए होना चाहिए, संघ के एक सदस्य के लिए नहीं। उन्होंने बहुत अनुनय-विनय की, परंतु उन्होंने (बुद्ध ने) उसे स्वीकार करने से मना कर दिया, वे बिल्कुल नहीं माने।

आम्बेडकर कहते हैं कि भिक्षु संघ का संविधान सबसे अधिक लोकतंत्रात्मक संविधान था। बुद्ध संघ के भिक्षुओं में से केवल भिक्षु थे। वह तानाशाह कभी नहीं थे। उनकी मृत्यु से पहले उनको दो बार कहा गया कि वह संघ पर नियंत्रण रखने के लिए किसी व्यक्ति को संघ का प्रमुख नियुक्त कर दें, परंतु हर बार उन्होंने यह कहकर इंकार कर दिया कि धम्म संघ का सर्वोच्च सेनापति है। उन्होंने तानाशाह बनने और तानाशाह नियुक्त करने से इंकार कर दिया। बुद्ध ने (बौद्ध) संघ में तानाशाही-विहीन साम्यवाद की स्थापना की थी। यह हो सकता है कि वह साम्यवाद बहुत छोटे पैमाने पर था, परंतु वह तानाशाही-विहीन साम्यवाद था, वह एक चमत्कार था।

आम्बेडकर कहते हैं कि साम्यवादियों की दृष्टि में धर्म (धम्म) अभिशाप है। धर्म के प्रति उनमें घृणा इतनी गहरी बैठी है कि वे साम्यवादियों के लिए सहायक धर्मों तथा जो उनके लिए सहायक नहीं हैं, उन धर्मों के बीच भी भेद नहीं करेंगे। साम्यवादी ईसाई मत के प्रति अपनी घृणा को बौद्ध धर्म तक ले गए हैं।”

आम्बेडकर ने अपने इस व्याख्यान में जोर देकर कहा, मानवता के लिए केवल आर्थिक मूल्यों की ही आवश्यकता नहीं होतीउसके लिए आध्यात्मिक मूल्यों को बनाए रखने की आवश्यकता भी होती है। स्थाई तानाशाही ने आध्यात्मिक मूल्यों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया और वह उनकी ओर ध्यान देने की इच्छुक भी नहीं है। मनुष्य का विकास भौतिक रूप के साथ-साथ आध्यात्मिक रूप से भी होना चाहिए।” आम्बेडकर कहते हैं कि भ्रातृत्व, स्वतंत्रता तथा समानता, ये तीनों तभी विद्यमान रह सकती हैं, जब व्यक्ति बुद्ध के मार्ग का अनुसरण करे।

राष्ट्र की सेवा में लगा उनका जीवन अनुकरणीय है। इस महान जीवन से वर्तमान में भी लाखों युवक समाज सेवा की प्रेरणा ग्रहण करते हैं। उनका व्यक्तित्व ऐसे प्रकाश स्तम्भ की तरह है जिसके समीप आकर सभी को दिशा मिलती है। भारत माँ के इस सच्चे सपूत को शत्-शत् प्रणाम।

– लखेश्वर चंद्रवंशी  ‘लखेश’, नागपुर 

 

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ऋषि : अवधारणा और आदर्श

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महर्षि वेदव्यास

ऋषि कौन हैं, कैसे हैं, कहाँ रहते हैं, यह हम नहीं जानते फिर भी “ऋषि” शब्द का उच्चारण करते ही हृदय श्रद्धानत हो जाता है। ज्ञानी, विद्वान, सहज, सरल और तेजस्वी व्यक्तित्व की छवि मनःपटल पर अनुभूत होता है। भारतीय धर्म ग्रंथों में ऋषि, राजर्षि, महर्षि, देवर्षि और ब्रह्मा ऋषि जैसे विशेष शब्दों का बहुत उपयोग हुआ है। इसलिए इन विशेष शब्दों या उपाधि की पृष्ठभूमि को समझना होगा।

ऋषित्येव गतौ धातु: श्रुतौ सत्ये तपस्यथ्।

एतत् संनियतस्तस्मिन् ब्रह्ममणा स ऋषि स्मृत:॥

इस श्लोक के अनुसार ‘ऋषि’ धातु के चार अर्थ होते हैं- गति, श्रुति, सत्य तथा तपस। ब्रह्माजी द्वारा जिस व्यक्ति में ये चारों वस्तुएँ नियत कर दी जाएं, वही ‘ऋषि’ होता है।

भारतीय संस्कृति में ऋषियों का स्थान सर्वोपरि है। ऋषि कौन हैं? यास्क के निरुक्त में “ऋषि” शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत की ‘दृश्’ धातु (देखना या जानना) के साथ-साथ ‘ऋष्’ धातु (“जाना”) से बताई गई है। जो सूक्ष्म अर्थों को देखता (जानता) है वह ऋषि है। ऋषि शब्द की एक और प्रसिद्ध परिभाषा है “ऋषयो मन्त्रद्रष्टारः” अर्थात् ऋषि मंत्रद्रष्टा हैं। ऋषि वैदिक मन्त्रों के द्रष्टा हैं। उणादि सूत्र और पाणिनीय व्याकरण के अनुसार ‘ऋषि’ शब्द ‘ऋष्’ धातु (“जाना” या “जानना”) से उत्पन्न है और इसका शाब्दिक अर्थ है “वह जो जानता है”।

वैदिक संज्ञाओं के एक प्रसिद्ध व्युत्पतिकार एवं वैयाकरण श्री दुर्गाचार्य यास्क की निरुक्ति है- ऋषिर्दर्शनात्। इस निरुक्त से ऋषि का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है – दर्शन करने वाला, तत्त्वों की साक्षात अपरोक्ष अनुभूति रखने वाला विशिष्ट पुरुष। यास्क का कथन है – ‘साक्षात्कृतधर्माण ॠषयो बभूअ:’ अर्थात निरुक्ति का प्रतिफलितार्थ है। दुर्गाचार्य का कथन है कि किसी मन्त्र विशेष की सहायता से किये जाने पर किसी कर्म से किस प्रकार का फल परिणत होता है, ऋषि को इस तथ्य का पूर्ण ज्ञान होता है।

तैत्तिरीय आरण्यक के अनुसार ऋषि शब्द की व्याख्या इस प्रकार है- “सृष्टि के आरम्भ में तपस्या करनेवाले अयोनिसंभव व्यक्तियों के पास स्वयंभू ब्रह्म (वेदब्रह्म) स्वयं प्राप्त हो गया। वेद का इस स्वत: प्राप्ति के कारण, स्वयमेव आविर्भाव होने के कारण ही ऋषि का ‘ऋषित्व’ है।” इस व्याख्या में ऋषि शब्द की निरुक्ति ‘तुदादिगण ऋष गतौ’ धातु से मानी गई है। अपौरुषेय वेद ऋषियों के ही माध्यम से विश्व में आविर्भूत हुआ और ऋषियों ने वेद के वर्णमय विग्रह को अपने दिव्य श्रोत्र से श्रवण किया, इसीलिए वेद को ‘श्रुति’ भी कहा गया है। आदि ऋषियों की वाणी के पीछे अर्थ दौड़ता-फिरता है। ऋषि अर्थ के पीछे कभी नहीं दौड़ते ‘ॠषीणां पुनराद्यानां वाचमर्थोऽनुधावति:’ (उत्तर रामचरित, प्रथम अंग)। निष्कर्ष यह है कि तपस्या से पवित्र अंतर्ज्योति सम्पन्न मन्त्रद्रष्टा व्यक्तियों की ही संज्ञा ऋषि है।

सामान्यत: वेद के मन्त्रदृष्टा ऋषि कहलाते थे। वेद, ज्ञान का प्रथम प्रवक्ता ; परोक्षदर्शी, दिव्य दृष्टि वाला, जिनमें ज्ञान के द्वारा मंत्रों को अथवा संसार की चरम सीमा को देखने की शक्ति होती थी, उन्हें ऋषि माना जाता था।

रत्नकोष में भी कहा गया है –

सप्त ब्रह्मर्षि-देवर्षि-महर्षि-परमर्षय:। काण्डर्षिश्च श्रुतर्षिश्च राजर्षिश्च क्रमावरा:।।

अर्थात ब्रह्मर्षि, देवर्षि, महर्षि, परमर्षि, काण्डर्षि, श्रुतर्षि, राजर्षि ये सातों क्रम से अवर हैं। यथा – व्यास (महर्षि), भेल (परमर्षि), कण्व (देवर्षि), वसिष्ठ (ब्रह्मर्षि), सुश्रुत (श्रुतर्षि), ऋतुपर्ण (राजर्षि), जैमिनि (काण्डर्षि)।

संक्षेप में ऋषि वह व्यक्ति है, जिसने मन्त्र के स्वरूप को यथार्थ रूप में समझा है। ‘यथार्थ’ ज्ञान प्राय: चार प्रकार से होता है : 1) परम्परा के मूल पुरुष होने से, 2) उस तत्त्व के साक्षात दर्शन से, 3) श्रद्धापूर्वक प्रयोग तथा साक्षात्कार से और 4) इच्छित (अभिलषित)-पूर्ण सफलता के साक्षात्कार से। अतएव इन चार कारणों से मन्त्र-सम्बन्धित ऋषियों का निर्देश ग्रन्थों में मिलता है।

जैसे – कल्प के आदि में सर्वप्रथम इस अनादि वैदिक शब्द-राशि का प्रथम उपदेश ब्रह्माजी के हृदय में हुआ और ब्रह्माजी से परम्परागत अध्ययन-अध्यापन होता रहा, जिसका निर्देश ‘वंश ब्राह्मण’ आदि ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। अत: समस्त वेद की परम्परा के मूल पुरुष ब्रह्मा हैं। इनका स्मरण परमेष्ठी प्रजापति ऋषि के रूप में किया जाता है। इसी परमेष्ठी प्रजापति की परम्परा की वैदिक शब्दराशि के किसी अंश के शब्द तत्त्व का जिस ऋषि ने अपनी तपश्चर्या के द्वारा किसी विशेष अवसर पर प्रत्यक्ष दर्शन किया, वह भी उस मन्त्र का ऋषि कहलाया। उस ऋषि का यह ऋषित्व शब्दतत्त्व के साक्षात्कार का कारण माना गया है। इस प्रकार एक ही मन्त्र का शब्दतत्त्व-साक्षात्कार अनेक ऋषियों को भिन्न-भिन्न रूप से या सामूहिक रूप से हुआ था। अत: वे सभी उस मन्त्र के ऋषि माने गए हैं।

कल्प ग्रन्थों के निर्देशों में ऐसे व्यक्तियों को भी ऋषि कहा गया है, जिन्होंने उस मन्त्र या कर्म का प्रयोग तथा साक्षात्कार अति श्रद्धापूर्वक किया है। वैदिक ग्रन्थों विशेषतः पुराण-ग्रन्थों से यह भी पता लगता है कि जिन व्यक्तियों ने किसी मन्त्र का एक विशेष प्रकार के प्रयोग तथा साक्षात्कार से सफलता प्राप्त की है, वे भी उस मन्त्र के ऋषि माने गए हैं।

सप्तर्षि

ऋषियों के साथ सात की संख्या का संबंध है। यहाँ तक कि संस्कृत भाषा में ‘ऋषि’ शब्द सात की संख्या का भी वाचक है। इसका कारण है वैदिक वाङमय में सात ऋषियों की प्रसिद्धि। इन सात ऋषियों को “सप्तर्षि” कहा जाता है। आकाश में तारामण्डल को भी सप्तर्षि कहा जाता है। सप्तर्षियों का प्रथम उल्लेख ऋग्वेद की शाकल संहिता के चतुर्थ मण्डल में प्राप्त होता है। ‘सप्तर्षि’ शब्द का ऋग्वेद, शुक्ल-यजुर्वेद, कृष्ण-यजुर्वेद, और अथर्ववेद की संहिताओं के अनेक मन्त्रों में उल्लेख है। इस प्रकार यह सिद्ध है कि सप्तर्षियों का महत्त्व वैदिक काल से ही है।

शुक्ल-यजुर्वेद के शतपथ ब्राह्मण में सात ऋषियों के नाम एक रहस्यमयी शैली में प्राप्त होते हैं। “ये दोनों कान ही गौतम और भारद्वाज हैं, ये दोनों नेत्र ही विश्वामित्र और जमदग्नि हैं, ये दोनों नासिका-रन्ध्र (नथुने) ही वसिष्ठ और कश्यप हैं, वाक् (जिह्वा) ही अत्रि हैं।” इस प्रकार सप्तर्षियों को दो कान, दो आँख, दो नथुने, और एक जीभ कहा गया है। ये मनुष्य की ज्ञानेन्द्रियां हैं। इस प्रकार जो अंग जानते हैं वे हमारे शरीर के ऋषि हैं। यह “जो जानता है वह ऋषि है” इस व्याख्या से संगत है। पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार अत्रि, वसिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम,  जमदग्नि, कश्यप, और भारद्वाज वर्त्तमान वैवस्वत मन्वन्तर के सप्तर्षि हैं। यजुर्वेदीय संध्या विधि के अनुसार सप्त व्याहृतियों – भूः, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः, और सत्यम् – के क्रमशः विश्वामित्र, जमदग्नि, भरद्वाज, गोतम, अत्रि, वसिष्ठ, और कश्यप ऋषि हैं।

इसी तरह अर्वावसु, कश्यप, दधीचि, भारद्वाज, भृगु, कृप, अष्टावक्र, गौतम, दमन, मंकणक, मार्कण्डेय, अत्रि, च्यवन, देवशर्मण, रुचीक, लिखित, शुक्र, और्व, जाजलि, नारद, लोमश, वसिष्ठ, व्यास, पुलस्त्य, विश्वामित्र, वैशम्पायन आदि को एकल ब्रम्हऋषि माना जाता है।

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ऋषि – एक अवस्था

संक्षेप में कहा जाए तो ऋषि वह है जो हम संसारी लोगों की दृष्टि से परे जो संसार है और उस संसार के कर्ता का दिग्दर्शन करता है…और हमसे अतिशय प्रेम के कारण उन अनुभूतियों को हमसे बांटता है, हमें वह पद्धति बताता है जिससे हमारा परम कल्याण हो…।

ऋषि, राजर्षि, महर्षि, देवर्षि, ब्रह्मर्षि आदि को वैदिक काल के ऋषियों की भिन्न-भिन्न अवस्था मानी जा सकती है। ऋषि, महर्षि और ब्रह्मर्षि यह तीन अवस्था उत्तरोत्तर गुण संवर्धित अवस्था पर आधारित हैं, जबकि राजर्षि और देवर्षि दोनों जन्म अथवा कर्म पर आधारित होगी। अपितु इसे पदवी नहीं बल्कि उपाधि मानना अधिक युक्तिसंगत प्रतीत होता है।

ब्रह्मर्षि, राजर्षि, देवर्षि

ब्रह्मर्षि में “ब्रह्म” शब्द जुड़ा है अर्थात जिसने स्वयं ब्रह्म अवस्था को प्राप्त कर लिया है, वे ब्रह्मर्षि हैं। हमारी संस्कृति में ब्रम्हऋषि को संन्यास मार्ग का सबसे बड़ा ऋषि माना जाता है।

देवर्षि और राजर्षि पुरातन काल में क्षत्रिय ऋषि को कहा जाता होगा। देवर्षि शब्द भी केवल नारद के लिए उपयोग में लिया गया है। ऋषित्व की अवस्था प्राप्त करके देव समाज में स्वयं का कार्यक्षेत्र सम्भाला था, संभवतः इसलिए वे देवर्षि कहलाए। और संभवतः सभी उपाधि जन सामान्य ने ही दी होनी चाहिए। जैसे कि आज भागवत कथा कर रहे वक्ता को व्यास कहा जाता है और वह जहां से कथा करता है उस स्थान को व्यासपीठ।

इसी तरह भारतीय संस्कृति में राजर्षि (राजा+ऋषि) ऐसे राजा को कहते हैं जो ऋषि (विद्वान) भी हो। दूसरे शब्दों में, वह ऋषि जो राजवंश या क्षत्रिय कुल का हो। जैसे, – राजर्षि विश्वामित्र, राजर्षि जनक। ऋग्वेद में प्राय: पूर्ववर्ती गायकों एवं समकालीन ऋषियों का उल्लेख है। प्राचीन रचनाओं को उत्तराधिकार में प्राप्त किया जाता था एवं ऋषि परिवारों द्वारा उनको नया रूप दिया जाता था। नि:संदेह ऋषि वैदिककालीन कुलों, राजसभाओं तथा सम्भ्रांत लोगों से सम्बन्धित होते थे। कुछ राजकुमार भी समय-समय पर ऋचाओं की रचना करते थे, उन्हें राजन्यर्षि कहते थे। आजकल उसका शुद्ध रूप राजर्षि है। मंत्र रचना के क्षेत्र में कुछ महिलाओं ने भी ऋषिपद प्राप्त किया था।

आधुनिक युग में राजर्षि

स्वामी विवेकानन्द की शिष्या भगिनी निवेदिता अपनी पुस्तक “रिलीजन एंड धर्मा” में लिखती हैं, “राजा हो तो जनक जैसा और भिक्षार्थी हो तो शुकदेव जैसा। राजा का भी आदर्श उपभोग शून्य स्वामी, विदेही जनक का है। राजा हो या योगी, सबका ध्येय एक- नर से नारायण बनाना।“

आधुनिक युग में अब मुनि, योगी, सन्त आदि को ऋषि शब्द के पर्यायवाची माना जाता है। समय के साथ बदले शब्दों, उपाधियों और निहितार्थ के अनुसार वर्तमान को भी देखना चाहिए। वैदिक परम्परा के बाद देश के सभी राज्यों में भिन्न-भिन्न भाषाओं में अनगिनत संतों ने ईश्वरनुभूति की और उस अनुभव के आधार पर संसार की नश्वरता, ईश्वर का साक्षात्कार और इस जम्बू द्वीप में अपने जीवन के लक्ष्य को जानने और जनवाने के लिए उन्होंने अथक परिश्रम किया। इस परम्परा में एक ओर हम भगवान बुद्ध, वर्धमान महावीर, गुरु गोरखनाथ, आदि शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, माध्वाचार्य, निम्बकाचार्य, चैतन्य महाप्रभु आदि को देखते हैं, वहीं दूसरी ओर संत कबीर, संत ज्ञानेश्वर, संत नामदेव, गुरु नानक देव, गोस्वामी तुलसीदास, संत सूरदास, संत तुकाराम, समर्थ रामदास, संत तिरुवल्लूवर, श्रीमत शंकरदेव आदि दिखाई देते हैं। इसी तरह भगवान बसवेश्वर, गुरु गोविन्द सिंह, छत्रपति शिवाजी महाराज आदि ने आध्यात्मिक अनुभूति से सम्पन्न महापुरुष होते हुए भी धर्म और देश की रक्षा के लिए भारतीय समाज को संगठित, शक्ति-सम्पन्न और ध्येयवान बनाने में अभूतपूर्व योगदान दिया।

18वीं शताब्दी से 21 शताब्दी के बीच जो सामाजिक और धार्मिक क्रांति हुई उसमें ठाकुर श्रीरामकृष्ण परमहंस-स्वामी विवेकानन्द, स्वामी विवेकानन्द-भगिनी निवेदिता, भगिनी निवेदिता-योगी अरविन्द, वीर सावरकर-नेताजी सुभाषचंद्र बोस, महात्मा गांधी-आचार्य विनोबा भावे, श्री गुरुजी गोलवलकर-श्री एकनाथजी रानडे का कार्य अमूल्य है। अब राजर्षि का मायने भी बदल गए हैं। लोकतंत्र है और जिनका जनता चयन करती है वे जन प्रतिनिधि होते हैं। शीर्ष जन प्रतिनिधि ही प्रधानमंत्री होता है। इस समय भारत की राजकीय बागडोर प्रधनमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी सम्भाल रहे हैं।

सन 2014 से अबतक जो भारत में जागरण और परिवर्तन का जो दृश्य दिखाई दे रहा है वह प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार श्री अजित डोवाल के कारण है। अब इस कड़ी में केन्द्रीय गृहमंत्री श्री अमित शाह का नाम जुड़ जाए तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है। धारा 370 हटाने, तीन तलाक के नियम की समाप्ति, उनके कार्यकाल में श्रीराम जन्मभूमि पर अपने पक्ष में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आना और अब नागरिकता संशोधन विधेयक का पारित होना यह अपनेआप में अभूतपूर्व और अद्वितीय है। सभी कार्य भारत को सशक्त, सुरक्षित और गौरवान्वित करने की दृष्टि से हो रहे हैं। अपने स्वार्थ को त्याग कर मेरा देश, मेरा धर्म, मेरा कर्तव्य, मेरा दायित्व यह भाव लेकर जब व्यक्ति कार्य करता है तो वह कार्य कल्याणकारी होता है। आइए इस पद को याद रखें और उसके अनुसार देशहित में अपनी भूमिका निभाएं – ऋषि-मुनियों की संतति हम हैं, उच्चादर्श हमारा।   

– लखेश्वर चंद्रवंशी ‘लखेश’,

में प्रकाशित किया गया था लेख

मैदान में चलो…

“पढ़ोगे, लिखोगे, बनोगे नवाब” और “खेलोगे, कूदोगे बनोगे ख़राब” इस कहावत से हम सभी परिचित हैं।  समाज में इस कहावत का भरपूर प्रभाव पड़ा और सभी पढ़ने पर जोर देने लगे। विद्यालयों और महाविद्यालयों में खेलने या पी.टी. के लिए बहुत कम समय दिया जाता है। यूं कहे तो पढ़ो, रटो, लिखो और अंक अच्छे लाकर नाम कमाओ, पैसे कमाओ। बस इसी पर जोर दिया जा रहा है। इसलिए समाज पर स्वार्थ वृत्ति हावी होता जा रहा है और लोग बिना परिश्रम के अधिकाधिक धनार्जन करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं। अब ऐसा प्रतीत होने लगा है कि हमारे समाज में धीरे-धीरे श्रमदेवता की उपासना कम होने लगी है।

इस समय मधुमेह, हृदय विकार, रक्तदाब और अनेक प्रकार के संक्रामक रोग से ग्रसित रोगियों की संख्या दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है। इसलिए प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने 29 अगस्त को “फिट इंडिया मूवमेन्ट” का शुभारम्भ किया जिससे कि देशवासियों में स्वस्थ जीवन जीने के लिए व्यायाम करने की प्रेरणा जाग्रत हो।oct 2019

महाकवि कालिदास ने अपनी रचना ‘कुमारसम्भव’ में कहा है – “शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्।” अर्थात् शरीर धर्म पालन का पहला साधन है। शरीर स्वस्थ है तो हम अपने प्रत्येक कर्त्तव्य को ठीक ढंग से पूरा कर सकते हैं। इसीलिए स्वामी विवेकानन्दजी कहा करते थे, “मुझे चाहिए लोहे की मांसपेशियां, फौलाद के स्नायु। ऐसे साहसी युवा जो समुद्र को लांघ जाने का, मृत्यु से आलिंगन करने की क्षमता रखते हो।”                     

कुछ युवा खेल के प्रति समर्पित होते हैं और राज्य स्तर से राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर खेल में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाने के लिए अत्यधिक परिश्रम करते हैं। वहीं ये खिलाड़ी अपने इस कठोर परिश्रम और तप से दुनिया में भारत की कीर्ति फैला रहे हैं। किन्तु प्रत्येक व्यक्ति राज्य या राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी तो नहीं बन सकते। इसका मतलब ऐसा भी नहीं है कि हम खेलना ही छोड़ दें! खेल तो जीवन का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। जबतक मनुष्य खेलता है तब तक वह स्वस्थ और तंदुरुस्त रहता है, इसलिए “मैदान में चलो, खेलो, कूदो, व्यायाम करो और स्वस्थ जीवन का लाभ उठाओ।”

स्वस्थ शरीर के आवश्यक है – पवित्रता, परिश्रम, आहार और व्यवस्थित दिनचर्या।

पवित्रता : नित्य रूप से श्रेष्ठ साहित्यों का स्वाध्याय, सतसंगति और आत्मचिन्तन से हमें आत्मबोध होता है, इसी से पवित्रता आती है।

परिश्रम : आचार्य विनोबा भावे कहा करते थे कि श्रमदेवता की उपासना करो, अर्थात् परिश्रम करो। जो व्यक्ति श्रम नहीं करता उसको आलस्य जकड़ लेता है। और हम जानते हैं कि आलसी व्यक्ति कभी भी अपने स्वप्न को साकार नहीं कर सकता। आलस्य को समाप्त करना है तो कठोर परिश्रम करना ही होगा।

आहार : हित भोज अर्थात् जो हमारे लिए हितकर हैं उस अन्न को पर्याप्त मात्र में खाएं। मीत भोज अर्थात् जो भोज पदार्थ हमें अधिक स्वादिष्ट और प्रिय है उसे थोड़ा कम खाएं, और काल भोज अर्थात् समय पर खाएं।

दिनचर्या : दुनिया में जितने भी महापुरुष अथवा सफल व्यक्ति हुए हैं या वर्तमान में हैं, उनके जीवन का यह महत्त्वपूर्ण सोपान होता है कि उनकी व्यवस्थित दिनचर्या। स्वस्थ रहने के लिए पर्याप्त नींद की आवश्यकता होती है। जिनकी दिनचर्या अच्छी होती है वे ही ठीक तरह से सो पाते हैं।

हम समाचार चैनलों में देखते हैं कि अमिताभ बच्चन, अक्षय कुमार जैसे अभिनेता अपनी फिटनेस को लेकर कितने जागरूक हैं। स्वयं प्रधनामंत्री मोदी भी नियमित रूप से व्यायाम, योगासन, प्राणायाम करते हैं और दिनभर देशकाज में व्यस्त रहते हैं। महात्मा गांधी और आचार्य विनोबा भावे नित्य पैदल चलते थे; पैदल चलने की आदत ने ही उनके शरीर को स्वस्थ रखा और इसी से उनकी कार्य क्षमता भी बढ़ी। विश्वनाथन आनंद का लेख “शतरंज” बुद्धिबल वाला है तथापि वे अपनी फिटनेस के लिए रोज सायकलिंग करते हैं। चाहे बौद्धिक कार्य करना हो या शारीरिक, अपनी बैठक क्षमता (सिटिंग कैपेसिटी) को बढ़ाना हो या अपनी एकाग्रता का विकास, व्यायाम का तप तो करना ही होगा।

स्वस्थ रहने के लिए महंगे जिम जाने की आवश्यकता नहीं है। अपने घर के निकट मैदान अथवा बगीचे में जाकर हम व्यायाम कर सकते हैं। लिफ्ट की जगह सीढ़ियों का उपयोग करना चाहिए। अपने घर के काम जैसे – झाड़ू लगाना, फर्श पोंछना, स्वयं के कपड़े धोना, पेड़-पौधों को पानी देना, रोजमर्रा की जरूरतों के सामान लाने के लिए निकट दुकानों तक पैदल जाना आदि काम हमें मन लगाकर करना चाहिए। आइए, हम भी अपने को व्यवस्थित कर लें इस संकल्प के साथ कि मैं फिट रहूंगा तो परिवार, समाज और देश के लिए उत्तम योगदान कर सकूंगा।

में प्रकाशित किया गया था लेख, विशेष

अमर लोक से हम चले आए

june 2019 (2)

(ज्येष्ठ पूर्णिमा, सद्गुरु कबीर साहब प्रगट दिवस पर विशेष)

कबीरा खड़ा बाजार में, मांगे सबकी खैर।

ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर।।

‘सद्गुरु कबीर साहब’ की उक्त साखी को भला आज कौन नहीं जानता! ऐसे अनगिनत साखियां और पद हैं जो जनमानस के हृदयों को भावविभोर कर देती हैं। उन्हें जगाती हैं, उन्हें झकझोरती हैं। सद्गुरु कबीर साहब से सारी दुनिया परिचित है। कबीरपंथी उन्हें ‘सदगुरु’ कहते हैं, साहित्यकार उन्हें ‘भक्तकवि’ कहते हैं और समाजसेवी उन्हें ‘समाज सुधारक’ के रूप में याद करते हैं। इस लेख में भी उनके लिए ‘सदगुरु’ ही लेखन अधिक युक्तिसंगत और उपयुक्त है क्योंकि सद्गुरु कबीर की वाणियों को अपने जीवन का अभिन्न अंग माननेवाला हमारा सामान्य भारतीय समाज अपने पथदर्शक को ‘सदगुरु, गुरु अथवा संत’ के रूप में स्मरण करता है। परन्तु हमारे ही देश के कुछ तथाकथित विद्वानों ने सद्गुरु कबीर साहब को ‘कबीरदास’ कहकर उनकी वाणियों को महज एक समाज सुधारक कवि के रूप में मंडित करना शुरू कर दिया, जो अबतक शुरू है। इतना ही नहीं तो कबीर पंथ के नाम पर अनेकों की दुकानें भी चल रहीं हैं। आज समाज में जिस तरह पाखंडी बाबाओं की पोल खुल रही है, ऐसे में कबीर पंथ के उस महान परम्परा पर ध्यान केन्द्रित हो जाता है जो विगत 500 वर्षों से लगातार सद्गुरु की वाणी-वचनों को देश और दुनिया तक पहुंचा रहा है। भारतीय दर्शन को सहज, सुगम, सटीक और सही परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करनेवाले सद्गुरु कबीर साहब के साहित्यों का उल्लेख करना भी आवश्यक है।

हिन्दी साहित्य ग्रंथों में साहित्यकारों ने सद्गुरु कबीर साहब इस धरा पर आगमन के विषय में अनेक बातें कही गई हैं। कई स्थानों पर लिखा गया है कि संत कबीर का जन्म विधवा ब्राम्हणी के गर्भ से हुआ तथा लोक-लाज के डर से उन्होंने उसे एक तालाब के किनारे छोड़ दिया जिसे नीरू-नीमा नामक मुस्लिम जुलाहे अपने घर ले गए। जबकि कबीर पंथ के साहित्यों में वर्णन मिलता है, उसके अनुसार, “विक्रम संवत् 1455 ज्येष्ठ पूर्णिमा, दिन सोमवार को काशी नगरी के लहरतारा क्षेत्र में लहर तालाब के किनारे स्वामी रामानन्द के शिष्य अष्टानन्द ध्यान-साधना में निमग्न थे। तभी एक दिव्य प्रकाश के रूप में आकाश मार्ग से होता हुआ एक तेज पुंज लहर तालाब के एक पूर्ण विकसित श्वेत कमल पर आकर स्थिर हो गया। तब चारों दिशाओं में एक अद्भुत प्रकाश छा गया। इस प्रकाश की ओर स्वामी अष्टानन्द का ध्यान खींच जाता है। देखते ही देखते यह प्रकाश पुंज एक बालक की आकृति में रूपांतरित हो जाता है। यह देखकर स्वामी अष्टानन्द को बड़ा आश्चर्य होता है और वह अपनी जिज्ञासा शान्त करने के लिए दौड़कर अपने गुरु रामानन्द स्वामी के पास जाते हैं। उसी समय नीरू बाबा अपनी पत्नी नीमा का गौना कराकर इसी रास्ते से गुजरते हैं। माता नीमा अपनी प्यास बुझाने लहर तालाब के किनारे पहुंचती है, सहसा उनकी दृष्टि कमल पुष्प पर अटखेलियां करते बालक पर जा टिकती है और अविलम्ब तालाब में उतरकर बालक को अपने हाथों में उठा लेती है, गले से लगा लेती है। नीरू बाबा भी पहली दृष्टि में आकृष्ट होते हैं लेकिन लोक-लाज के भय से बालक को वहीं छोड़ देने की बात नीमा से कहते हैं। तब आकाशवाणी होती है कि हे नीरू बाबा मुझे अपने साथ घर ले चलो, मैं आपके और जगत के उद्धार के लिए प्रगट हुआ हूं। इस प्रकार निर्भय होकर नीरू बाबा और नीमा माता उन्हें अपने साथ प्रसन्नतापूर्वक घर लेकर जाते हैं।” इस सम्बन्ध में यह साखी प्रसिद्ध है :-

गगन मंडल से उतरे, सद्गुरु पुरुष कबीर।

जलज मांहि पौढ़न कियो, दोऊ दिनन के पीर।।

तथा

चौदह सौ पचपन साल गए, चन्द्रवार एक ठाठ ठए।

जेठ सुदी बरसायत को, पूरनमासी तिथि प्रगट भए।।

इसलिए सद्गुरु के भारतवर्ष में आगमन के विषय पर कुछ कहने या मानने से पूर्व हमें सद्गुरु कबीर साहब की वाणियों पर अपना ध्यान केन्द्रित करना चाहिए।

kabeer dharmdas

सद्गुरु ने अपने धरा पर आगमन का वृत्तान्त अपने प्रधान शिष्य धर्मदास साहब से इस प्रकार किया है :-

अब हम अविगत से चलि आये, मेरो भेद मरम न पाये।

ना हम जन्मे गर्भ बसेरा, बालक होय दिखलाये।

काशी शहर जलहि बीच डेरा, तहां जुलाहा पाये।

हते विदेह देह धरि आये, काया कबीर कहाये।

बंश हेत हंसन के कारन, रामानन्द सामुझाये।

ना मोरे गगन धाम कछु नाही, दीसत अगम अपारा।

शब्द स्वरूपी नाम साहब का, सोई नाम हमारा।

ना हमरे घर मात पिता है, नाहि हमरे घर दासी।

जात जोलाहा नाम धराये, जगत कराये हांसी।

ना मोरे हाड़ चाम ना लोहू, हौं सतनाम उपासी।

तारन तरन अभय पद दाता, कहैं कबीर अविनाशी।।

सद्गुरु कबीर साहब ने अपने प्रगट होने का कारण भी बताया है। उन्होंने कहा है :- 

अमर लोक से हम चले आये, आये जगत मंझारा हो।

सही छाप परवाना लाये समरथ के , कड़िहारा हो।

जीव दुखित देखत भवसागर, ता कारण पगु धारा हो।

वंश ब्यालिश थाना रोपे, जम्बू दीप मंझारा हो।।

इससे स्पष्ट होता है कि सद्गुरु कबीर साहब भवसागर में जीव को दुखी देखकर उनके उद्धार के लिए इस धरा पर आए थे। हम जानते हैं कि सद्गुरु के कालखंड में भारत में मुगलों का शासन था और हिन्दुओं पर भारी अत्याचार हो रहा था। वहीं हिन्दू जीवन-पद्धति में कर्मकांड चरम पर था तथा धर्म के नाम पर सामान्य जनता डरा-धमका कर उन्हें पंडितों द्वारा लूटा जा रहा था। साथ ही विभिन्न-स्तरों पर हिन्दू-मुस्लिमों के बीच भारी कटुता थी।

सद्गुरु कबीर साहब ने एक ओर हिन्दू तथा मुस्लिम समुदाय को आपसी कटुता को समाप्त करने के लिए भारी प्रयत्न किये, वहीं दूसरी ओर उन्होंने भक्तिभाव की ऐसी धारा प्रवाहित की कि जिसमें आज भी भक्त-प्रेमी डुबकी लगा रहे हैं। सद्गुरु की भावाभिव्यक्ति अद्भुत है। वे कहते हैं :-

साजन नैनन में बसो, पलक ढांक तोहे लूं।

ना मैं देखूं और को, ना तोहे देखन दूं।।  

वे अपनी बातें दो टूक कहते हैं, एकदम स्पष्ट, सीधे हृदय में उतरता है।

भक्ति भाव भादो नदी, सबे चले उतराय।

सरिता सोई सराहिये, जेठ मास ठहराय।  

कामी क्रोधी लालची, इनसे भक्ति न होय।

भक्ति करे कोई सूरमा, जात बरन कुल खोय।।

june 2019 (1)

चार दाग से सतगुरु न्यारा

जो सद्गुरु होते हैं वे चार दाग से मुक्त होते हैं। संत मलूक दास ने सद्गुरु कबीर साहब का वर्णन करते हुए अपने पद में कहा है,

“चार दाग से सतगुरु न्यारा, अजरो अमर शरीर। 

दास मलुक सलूक कहत हैं, खोजो खसम कबीर।।”

दाग का अर्थ धब्बा नहीं है, वरन दाग का अर्थ है अग्नि। ये चार दाग हैं – गर्भाग्नि, कामाग्नि, जठराग्नि तथा चिताग्नि। सद्गुरु कबीर साहब इन चारों अग्नि से मुक्त थे, वे किसी के गर्भ से नहीं जन्में थे, वे काम-वासना से पुर्णतः मुक्त थे, उन्हें भूख नहीं सताता था और जब वे इस संसार से गए तब भी उनका पार्थिव देह नहीं मिला। भक्तों ने देखा कि श्वेत चादर के नीचे पुष्प ही रखे हैं। आधे पुष्प हिन्दू उठा ले गए और उन्होंने उसे स्थापित कर वहां उनकी समाधि बना दी। जबकि आधे पुष्प मुस्लिम ले गए और उसे दफनाकर मकबरा बना दिया। संसार में सद्गुरु कबीर साहब एकमात्र ऐसे महापुरुष हैं जो एक ही हैं, तथापि उनकी समाधि और मजार एक ही स्थान मगहर (उत्तर प्रदेश) में अलग-अलग बना है।

कबीर साहित्य  

सद्गुरु कबीर साहब ने अपने जीवनकाल में अनगिनत बातें कहीं, जो श्रुति रूप में आज भी देश के अनेक बोली-भाषाओं में प्रचलित है। पर वाणियों की प्रामाणिकता और विश्वसनीयता के तौर पर कबीरपंथ में अनेक ग्रंथ संगृहित है। साहित्य जगत में ‘बीजक’ को ही प्रामाणिक माना गया, तब हिंदी साहित्य के प्रखर विद्वान् आचार्य पंडित हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अपनी रचना ‘कबीर’ में अनेक ग्रंथों का आधार लेकर यह बताने का सार्थक प्रयत्न किया कि महज कुछ पृष्ठों में संकलित ‘बीजक’ एकमात्र प्रामाणिक ग्रंथ नहीं हो सकता। इसपर यह तर्क दिया जा सकता है कि साधारण लेखक भी अपने जीवन काल में 20 से अधिक किताबों की रचना कर सकता है, तो सद्गुरु कबीर जैसे प्रखर और क्रांतिकारी व्यक्तित्व का धनी अपने 119 वर्ष की आयु में केवल एक छोटी सी पुस्तिका में समा जाए, क्या इतनी ही वाणी कही होगी? भोर से संध्या तक समाज में व्याप्त कुरीतियों को समाप्त करने तथा समाज में नीति मूल्यों को स्थापित करने के लिए सार्थक प्रयत्न करनेवाले सद्गुरु कबीर साहब ने निश्चय ही अनगिनत वाणियां कहीं हैं। आज जब हम उन वाणियों को पढ़ते-समझते और उससे प्रेरणा लेते हैं, तो उसके स्रोत को समझना बेहद जरुरी है।

सद्गुरु कबीर साहब के वाणियों के लेखक और संकलनकर्ता धनी धर्मदास

यूं तो धर्मदास साहब का नाम जुड़ावनदास था, परन्तु सद्गुरु कबीर साहब के प्रति अनन्य भक्ति और समर्पण के चलते उन्होंने अपनी सारी सम्पत्ति समाजहित के लिए अर्पित कर दी। और तब सद्गुरु ने उन्हें ‘नाम दान’ देकर धनी बना दिया और वे धनी धर्मदास कहलाए। इस सन्दर्भ में धर्मदास साहब ने लिखा है :-

संतों! हम तो सत्यनाम व्यापारी।

कोई कोई लादे कांसा पीतल, कोई कोई लौंग सुपारी।

हम तो लादे नाम धनी को, पूरन खेप हमारी।

पूंजी न घटी नफा चौगना, बनिज किया हम भारी।

नाम पदारथ लाद चला है, धर्मदास व्यापारी।।

धर्मदास साहब का जन्म मध्य प्रदेश के बांधवगढ़ में विक्रम संवत् 1452 की कार्तिक पूर्णिमा को हुआ था। विक्रम संवत् 1519 में व्यापार और तीर्थाटन के दौरान मथुरा में सद्गुरु कबीर साहब से उनका सम्पर्क हुआ। उनकी दूसरी भेंट वि.सं. 1520 में हुई, जिसके बाद सदा के लिए सद्गुरु ने उन्हें अपना बना लिया। धर्मदास साहब के निवेदन पर सद्गुरु उनके गृहग्राम बांधवगढ़ आए। सद्गुरु ने धर्मदास साहब, उनकी धर्मपत्नी आमीनमाता साहिबा और उनके द्वितीय पुत्र चुरामणिनाम साहब को ‘आरती चौका’ कर दीक्षा प्रदान की। उल्लेखनीय है कि सद्गुरु कबीर साहब ने धर्मदास साहब को नाम दान के साथ ही अटल ब्यालीस वंश का आशीर्वाद दिया, जिसके फलस्वरूप वि.सं.1538 में चुरामणि नाम साहब का प्रागट्य हुआ।

धनी धर्मदास साहब ने अनथक परिश्रम कर सद्गुरु कबीर की अनगिनत वाणियों में से बहुत सी वाणियों को लिपिबद्ध किया, जिससे कुछ ग्रंथों की निर्मिती हो पाई, – बीजक, शब्दावली, साखीग्रंथ, कबीर सागर, सागर में ज्ञान सागर, अनुराग सागर, अम्बु सागर, विवेक सागर, सर्वज्ञ सागर, बोध सागर, ज्ञान प्रकाश, आत्मबोध, स्वसमवेद बोध, धर्म बोध, ज्ञान बोध, भवतारण बोध, मुक्ति बोध, चौका स्वरोदय, कबीर बानी, कर्म बोध, अमर मूल, ज्ञान स्थिति बोध, संतोष बोध, काया पांजी, पंच मुद्रा, श्वांस गुंजार, आगम-निगम बोध, सुमिरन बोध, गुरु महात्म्य, जीव धर्म बोध, स्वतंत्र ग्रंथ पूनो महात्म्य, ज्ञान स्वरोदय, गुरु गीता, आगम सन्देश, हंस मुक्तावली आदि। यह ज्ञान रूपी धन समाज जीवन में अविरल प्रवाहित होती रहे, इसके लिए सद्गुरु कबीर साहब ने पंथ की स्थापना की और इसका दायित्व धनी धर्मदास और उनके ब्यालीस वंशों को दी। विगत पांच शताब्दी से ‘श्री सद्गुरु कबीर धर्मदास साहब वंशावली’ सद्गुरु की वाणी का प्रचार-प्रसार निरंतर करता आ रहा है। वर्तमान में ‘कबीर पंथ’ का यह मुख्यालय रायपुर के निकट धर्मनगर दामाखेड़ा में स्थित है, जो सद्गुरु कबीर साहब के संदेशों को समाज जीवन में स्थापित करने के लिए प्रतिबद्ध है। सद्गुरु कबीर की साखियों और पदों के माध्यम से मानवीय जीवन मूल्यों को समाज में आचरणीय बनाना जिसका लक्ष्य है। यह सर्वविदित है कि सद्गुरु कबीर की वाणी भारतीय विचारधारा की अक्षय निधि है। आइये, हम सद्गुरु कबीर के अनगिनत वचनों का अध्ययन करें, उसे जानें, समझें और उसे अपने आचरण में लाएं।

सप्रेम साहेब बंदगी साहेब…

– लखेश्वर चंद्रवंशी ‘लखेश’