में प्रकाशित किया गया था नाटक / एकांकी / पथनाट्य

अंगद का आत्मविश्वास

(रावण का दरबार लगा है। बड़े-बड़े राक्षस रावण की सभा में बैठे हैं। तभी…)

सैनिक : महाराज लंकेश्वर की जय हो, श्रीराम का दूत प्रस्ताव लेकर आया है।

रावण : मूर्ख, शत्रु के नाम के पहले श्री लगाते हो, क्या तुम्हें लज्जा नहीं आती?

सैनिक : क्षमा महाराज, क्षमा।…(रूककर) क्या उसे राजसभा में आने की अनुमति है?

रावण : अवश्य! देखें तो शत्रु दल का राजदूत है कैसा?

(अंगद का प्रवेश)

रावण : (हंसकर) ये किस बालक को भेज दिया है राम ने? वह भी एक वानर को!

अंगद : रावण, वानर कहकर उपहास मत करो। भूलो मत कि कुछ दिन पहले आपने जिसे वानर समझकर उनकी पूछ पर आग लगाई, उन्होंने पूरी लंका को जला दिया था। मैं बालक हूं या वानर इस बात की चर्चा मत करो। बस, इतना परिचय ही पर्याप्त है कि मैं श्रीराम का दूत अंगद हूं।

रावण : कौन अंगद?

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अंगद : मैं वही अंगद हूं जिसके पिताश्री ने आपको छः माह तक अपने बगल में दबाकर रख दिया था।

रावण : (झुंझलाकर…चालाकी से) ओ! तो तुम मेरे परम मित्र किष्किन्धा नरेश पराक्रमी बालि के पुत्र हो!…फिर भी राम के पक्ष में रहकर अपने पिता के मित्र से युद्ध करने आए हो। अरे, राम ने तो छिपकर, छलपूर्वक तुम्हारे पिताश्री की हत्या कर दी थी। फिर भी तुम उसी राम की ओर से प्रस्ताव लेकर आए हो।

अंगद : रावण! बातें मत बनाओ। तुम्हारी इस शब्द जाल के छल को मैं भलीभांति समझता हूं। तुम्हारी बातों में केवल वही फंस सकता है, जिसकी श्रीराम के प्रति भक्ति नहीं है। मेरे पिताश्री, बालि ने अपने छोटे भाई सुग्रीव की पत्नी रुमा के अपहरण का घोर पाप किया था। प्रभु श्रीराम ने उनके इस अपराध के लिए उनको दण्डित किया। असहाय की रक्षा करना, अपराधी को दण्डित करना यही धर्म है।….हे रावण! एक अकेली स्त्री को छलपूर्वक अपहरण करके तुमने भी घोर पाप किया है। इसलिए नैतिकता की बात तुम्हारे मुख से अच्छी नहीं लगती। माता सीता को अशोकवाटिका के बंधन से मुक्त कर दो। और मेरे प्रभु श्रीरामचन्द्र की शरण में आ जाओ। मेरे प्रभु कृपालु हैं, वे आपको क्षमा कर देंगे।

रावण : (चिल्लाकर) अंगद! चुप रहो। बालक समझकर तुम्हें बोलने का अवसर दिया, पर तुम रावण के सामने शत्रु शरण में जाने की बात कर रहे हो। तुम्हारा यह दुस्साहस!

अंगद : रावण! अंतिम बार कह रहा हूं कि आप माता जानकी को मुक्त कर दो और अपने प्राण बचा लो।

रावण : रावण के नाम से तीनों लोक कांपते हैं और तुम रावण को चुनौती दे रहे हो। मैं इसी क्षण तुम्हारे प्राण ले लूंगा।

अंगद : रावण! तुम भूल गए हो कि जिसपर श्रीराम का आशीर्वाद होता है, उसे कोई पराजित नहीं कर सकता। हां,…मैं इतना अवश्य चुनौती देता हूं कि इस सभा में कोई भी योद्धा मेरे पैर को भूमि से हिला दे तो हम अपनी हार स्वीकार कर लेंगे। प्रभु श्रीराम मातासीता को लिये बिना ही, बिना युद्ध के वापस लौट जाएंगे।

रावण : (अट्ठाहस करते हुए) हा, हा, हा! अबोध बालक ये तुमने क्या कह दिया, कि तुम्हारे पैर को कोई हिला दे तो राम युद्ध किए बिना, सीता को लिए बिना ही लौट जाएंगे। अरे वानर! इस राजसभा में इंद्रा को परास्त करनेवाले इन्द्रजीत मेघनाथ सहित देवताओं को आतंकित करनेवाले बड़े-बड़े वीर राक्षस हैं। कोई भी सैनिक तुम्हारे इस छोटे से पैर को क्या, तुम ही को उठाकर फेंक देंगे।

अंगद : मैं भी तो देखूं कि इस सभा के वीरों की भुजाओं में कितना बल है?

(एक-एक कर सभी योद्धा अंगद का पैर हिलाने का प्रयत्न करते हैं, पर कोई सफल नहीं हो पाता। अंत में स्वयं रावण उठता है और वह अंगद का पैर पकड़ता है। तभी…)

अंगद : (रावण का हाथ झटके से छुड़ाकर) रावण! मेरे नहीं, श्रीराम के चरण पकड़ो। कदाचित वे तुम्हें क्षमा कर दे।

(चारो ओर से सैनिक अंगद की ओर बढ़ते हैं, तभी अंगद जोर से अपना पैर भूमि पर पटकते हैं। अंगद के चरण बल से सभा की भूमि हिलने लगती है। रावण का मुकुट गिर जाता है। अंगद जय श्रीराम का उद्घोष करते हुए रावण के मुकुट को उठाकर राजसभा के बाहर उछाल देते हैं। रावण का यह मुकुट राजसभा से दूर शिविर में बैठे श्रीराम की चरणों के समीप आ गिरता है।)   

– लखेश्वर चंद्रवंशी ‘लखेश’

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में प्रकाशित किया गया था नाटक / एकांकी / पथनाट्य

उपमन्यु की गुरुभक्ति

 गुरु पूर्णिमा विशेष : लघु नाटिका

सूत्रधार 1 : महर्षि आयोद धौम्य अपनी विद्या, तपस्या और विचित्र उदारता के लिए बहुत प्रसिद्ध थे। वे ऊपर से तो अपने शिष्यों से सम्मुख बड़े कठोर प्रतीत होते थे, किन्तु भीतर से शिष्यों पर उनका अपार स्नेह था। वे अपने शिष्यों को अत्यंत सुयोग्य बनाना चाहते थे, इसलिए उनकी कड़ी परीक्षा भी लेते थे।

(प्रथम दृश्य)

(महर्षि आयोध धौम्य के सामने सारे शिष्य बैठे हैं। महर्षि के साथ सभी तीन ओमकार के साथ सामूहिक प्रार्थना कर रहे हैं।) 

एकत्र : ॐ सहनाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै।। ॐ शांतिः! शांतिः!! शांतिः!!!

महर्षि : मनुष्य जीवन बड़ा ही दुर्लभ है। इसलिए हमें अपने इस जीवन के प्रत्येक क्षण का उपयोग सद्कार्यों में व्यतीत करना चाहिए। उचित मार्ग पर चलकर ही हम परमात्मा के निकट पहुंच सकते हैं। गुरु की आज्ञा तथा गुरु के वचनों का निष्ठापूर्वक पालन ही शिष्य का परम कर्तव्य है। हमारे सनातन धर्म में गुरु-शिष्य के आत्मीय संबंधों का बड़ा महत्व है। मेरे प्रिय, आत्मीय शिष्यवृन्द! आप जैसे शिष्यों को पाकर मैं प्रतिपल आनंदित रहता हूं।

शिष्य 1 : (खड़े होकर) गुरुदेव, धन्य तो हम सभी हैं आपको गुरु रूप में पाकर!

शिष्य 2 :  गुरुदेव! आपकी कृपा से निश्चय ही हम अपने जीवन को सार्थक बनाएंगे।

महर्षि : अच्छा तो आश्रम के लिए कुछ सामग्री एकत्र करना है और कुछ व्यवस्था की दृष्टि से आप सबको कुछ काम देना है।

शिष्यगण : (मिलकर) हम तैयार हैं, गुरुवर!

(महर्षि अपने स्थान से उठते हैं और अपने शिष्यों के निकट जाते हैं। सभी शिष्य खड़े हो जाते हैं।)

महर्षि : (पहले शिष्य के कंधे पर हाथ रखकर) पुत्र, तुम्हें जंगल से लकड़ी लाना है और (एक अन्य शिष्य का हाथ पकड़कर) इसे भी अपने साथ ले जाना। … (रुककर) उपमन्यु! तुम आज से आश्रम की गाय चराने जंगल जाओगे।

शिष्यगण : जो आज्ञा गुरुदेव…

(शिष्यगण अपने-अपने कार्य में लग जाते हैं। उपमन्यु गायों को चराने जंगल की ओर निकल पड़ता है।)

(दृश्य 2)

(उपमन्यु जगल में गाय चरा रहा है।)

उपमन्यु : (गाय के सिर पर हाथ फिराते हुए) आप सभी के भूख का प्रबंध तो हो गया, अब मेरी बारी है। (गाय को एक पेड़ पर बांधकर उपमन्यु भिक्षा लेने गांव पहुंचता है।)

उपमन्यु : भिक्षां देहि!

(घर के भीतर से एक महिला फल आदि लेकर आती हैं। उपमन्यु को भिक्षा देकर वह उसे प्रणाम करती है। उपमन्यु भी प्रणाम करता है। फिर उपमन्यु पेड़ की छाया में बैठकर फल खाता है और गायों को लेकर आश्रम की ओर लौटता है।)

महर्षि  : बेटा उपमन्यु! बड़े हष्ट-पुष्ट लग रहे हो। आजकल तुम क्या खाते हो?

उपमन्यु : (नम्रतापूर्वक) भगवन्‌ ! मैं भिक्षा माँगकर अपना गुजारा कर लेता हूँ।

महर्षि : वत्स ! ब्रह्मचारी को इस प्रकार भिक्षा से प्राप्त अन्न ग्रहण नहीं करना चाहिए। भिक्षा माँगकर जो कुछ मिले, उसे गुरु के सामने रख देना चाहिए। उसमें से गुरु यदि कुछ दें तो उसे ग्रहण करना चाहिए।

उपमन्यु : जैसी आपकी आज्ञा गुरुवर। अब से मैं ऐसा ही करूंगा।

(अगले दिन उपमन्यु भिक्षा मांगने के लिए एक गाँव में जाता है।)

उपमन्यु : भिक्षां देहि!!

गृहिणी : (भिक्षा देते हुए) ये लीजिए ब्रम्हाण देवता। (हाथ जोड़कर प्रणाम करती है।)

उपमन्यु : (भिक्षा अपनी झोली में लेकर) ईश्वर आपका कल्याण करे।

(उपमन्यु भिक्षा से प्राप्त अन्न / फल आदि लेकर गुरुदेव के पास जाता है और उनके समक्ष अर्पित कर देता है।)

सूत्रधार 2 : महर्षि धौम्य तो अपने शिष्य की श्रद्धा को दृढ़ करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने शिष्य के लिए परीक्षा और भी कठिन कर दी। गुरुदेव भिक्षा से प्राप्त सबकुछ अपने पास रख लेते और उसमें से कुछ भी उपमन्यु को नहीं देते थे। फिर भी उपमन्यु पूरी श्रद्धा से गुरु के वचनों का पालन करता रहा। कुछ दिन बाद जब गुरुदेव ने उपमन्यु ने पूछा…)

महर्षि : उपमन्यु ! तुम आजकल क्या खाते हो?

उपमन्यु : मैं एक बार की भिक्षा का अन्न आपको दे देता हूं फिर अपने लिए पुनः भिक्षा माँग लेता हूँ।

गुरुदेव : दुबारा भिक्षा माँगना तो धर्म के विरुद्ध है। इससे गृहस्थों पर अधिक भार पड़ेगा। और अब से तुम दूसरी बार भिक्षा माँगने नहीं जाना।

उपमन्यु : जो आज्ञा गुरुदेव!

सूत्रधार 1 : कुछ दिनों के बाद महर्षि ने फिर पूछा कि तुम अब क्या खाते हो? उपमन्यु ने बताया कि मैं गायों का दूध पी लेता हूँ। फिर महर्षि ने कहा कि “यह तो ठीक नहीं। गाएं जिसकी होती हैं, उनका दूध भी उसी का होता है। मुझसे पूछे बिना गायों का दूध भी तुम्हें नहीं पीना चाहिए। उपमन्यु ने दूध पीना भी छोड़ दिया।

सूत्रधार 2 : थोड़े दिन बीतने पर गुरुदेव ने पूछा कि – उपमन्यु! तुम दुबारा भिक्षा भी नहीं लाते और गायों का दूध भी नहीं पीते तो खाते क्या हो? तुम अब भी बलवान दिखाई देते हो। तब उपमन्यु ने कहा कि, –  “भगवन्‌! मैं बछड़ों के मुख से जो फेन गिरता है, उसे पीकर अपना काम चला लेता हूँ।” महर्षि बोले, “बछड़े बहुत दयालु होते हैं। वे स्वयं भूखे रहकर तुम्हारे लिए अधिक फेन गिरा देते होंगे। तुम्हारी यह वृत्ति भी उचित नहीं है।”

सूत्रधार 1 : अब उपमन्यु उपवास करने लगा। दिनभर बिना कुछ खाए गायों को चराते हुए वह वन में भटकता रहता। अंत में जब भूख असह्य हो गई, तब उसने आक के पत्ते खा लिये। उन विषैले पत्तों का विष शरीर में फैलने से वह अंधा हो गया। उसे कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। गायों की पदचाप सुनकर वह उनके पीछे चल रहा था। मार्ग में एक सूखा कुआँ था जिसमें उपमन्यु गिर पड़ा।

सूत्रधार 2 : अंधेरा होने पर सब गाएं लौट आईं और उपमन्यु नहीं लौटा, तब महर्षि को चिंता हुई। वे सोचने लगे कि, – “मैंने उस भोले बालक का भोजन सब प्रकार से बंद कर दिया। कष्ट पाते-पाते दुखी होकर वह भाग तो नहीं गया।” फिर महर्षि अपने अन्य शिष्यों के साथ उसे जंगल में ढूँढ़ने निकल पड़े और बार-बार पुकारने लगे…

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महर्षि : (यहां-वहां देखकर पुकारते हुए) बेटा उपमन्यु ! तुम कहाँ हो?

उपमन्यु : (कुएं के भीतर से) भगवन्‌ ! मैं कुएँ में गिर पड़ा हूँ।

सूत्रधार 1 : महर्षि कुएं समीप आए और अपने शिष्य को उस अवस्था में देखकर वे बहुत दुखी हुए। जब उन्हें यह पता चला कि उपमन्यु को कुछ दिखाई नहीं दे रहा है तो उन्होंने उपमन्यु से कहा।

महर्षि : वत्स ! अब तुम ऋग्वेद के मंत्रों का उच्चारण करके देवताओं के वैद्य अश्विनी कुमारों की स्तुति करो।

(उपमन्यु हाथ जोड़कर मन ही मन अश्विनी कुमारों का स्मरण करने लगे और तब दोनों देवता कुएं के भीतर प्रकट होते हैं।)  

देवता 1 : उपमन्यु, तुम सचमुच महान हो। गुरु के वचनों का पालन करने में तुमने तनिक भी अपने प्राणों की परवाह नहीं की। (दोनों देवता आशीर्वाद मुद्रा में) हम तुम्हारी नैनों की ज्योति पुनः लौटाते हैं।

देवता 2 : (एक फल उपमन्यु को प्रदान करते हुए) यह लो वत्स! इस फल को ग्रहण करो, इससे तुम पूरी तरह स्वस्थ हो जाओगे।

(उपमन्यु फल लेकर अपने गुरुदेव की ओर देखता है।)

दोनों देवता : तुम संकोच न करो। तुम्हारे गुरु ने भी अपने गुरु को अर्पित किए बिना हमारा दिया पदार्थ प्रसाद मानकर खा लिया था।

उपमन्यु : वे मेरे गुरु हैं, उन्होंने भले ही ऐसा किया हो, पर मैं उनकी आज्ञा नहीं टालूँगा।

(उपमन्यु फल लेकर अपने गुरु के चरणों में अर्पित कर देता है। गुरु के चरणों में झुककर प्रणाम करता है और गुरुदेव उसे बड़े स्नेह से अपने हृदय से लगा लेते हैं।)  

अश्विनी कुमार (दोनों देवता) : तुम अपनी परीक्षा में सफल रहे उपमन्यु। धन्य है तुम्हारी गुरुभक्ति! हम तुम्हारी गुरुभक्ति से बहुत प्रसन्न हैं। हम तुम्हें आशीर्वाद देते हैं कि समस्त विद्याएं तुम अपनेआप सीख जाओगे।

सूत्रधार 2 : ऐसी थी उपमन्यु की गुरुभक्ति! धन्य है उपमन्यु और धन्य हैं हम गुरु-शिष्य परम्परा के संवाहक! गुरु की आज्ञा का पालन करने से ही हममें योग्यता आती है। हमारी क्षमताओं का विकास होता है। इसलिए गुरु के श्रीचरणों में शत शत नमन।