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हम अपने घर पर ही रहें…

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वीरव्रतियों के वंशज हम, ऋषि-मुनियों की संतान हैं।

पराक्रम धैर्य संस्कारी पुत्रों से ही, मेरा भारत देश महान है।।

जब जब विपदा आई है, अवसर में उसको बदला है।

समर्पण की कसौटी पर, स्वयं को हमने तौला है।।

हम लें आदर्श इस दौर में, अपने पूर्वजों की थाती का।

आओ अपने घर पर ही रहें, कर्ज चुकाएं अपनी माटी का।।

seetaमाता सीता का स्मरण करो,

अशोक वाटिका में वह कैसी रहीं?

विपरीत स्थितियों पर दृढ़ रहकर,

माँ सहजता से सब सहती रही।

असुरों की टोली, क्रूरता की बोली,

राक्षसों का पहरा, चहुँओर अंधेरा।

शक्ति संपन्न रावण, भयंकर था उसका कुटिल षड्यंत्र।

राममय माता जानकी, धैर्य-विश्वास था उनका महामंत्र।।

अब समय है ऐसा आया, कोरोना की छायी काली साया।

सर्वत्र प्रकोप है उसका फैला, सुरक्षित है वह जो रहा अकेला।।

अपनी रक्षा की खातिर पुलिस, वैद्य दिन-रात लगे हैं।

औषधि-खाद्य आपूर्ति में, लाखों लोग अहोरात्र जगे हैं।।

vanwasपराक्रमी पांडवों के जीवन में विपत्तियों का झोंका था।

बारह वर्ष वनवास काल को मिलकर उन ने भोगा था।

उसी काल में कठिन तपस्या कर वरदान अनेकों पाए थे।

हिडम्बा, बकासुर जैसे दानवों से जनमानस को बचाए थे।

संघर्ष करनेवालों के सारथी, स्वयं भगवान बन जाते हैं।

गीता ज्ञान को जन मन में पहुँचाने वेदव्यास भी आते हैं।।

इसलिए हताशा छोड़कर, विजयी-संकल्प धारण करना है।

वैश्विक महामारी से बचने-बचाने अपने ही घरों में रहना है।।

bhagat singhदेखो, बलिदानी भगतसिंह को,

जिसने बसंती रंग ओढ़ा था।

देश की स्वतंत्रता के खातिर,

अपना घर-आंगन छोड़ा था।

भरी जवानी में क्रांतिपथ पर, अविरल वह चलता रहा।

जेल में मिली यतानाओं को, हँसते-हँसते सहता रहा।।

हम लें आदर्श इस दौर में, अपने पूर्वजों की थाती का।

आओ अपने घर पर ही रहे, कर्ज चुकाएं अपनी माटी का।।

– लखेश्वर चंद्रवंशी ‘लखेश’

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ऋषि : अवधारणा और आदर्श

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महर्षि वेदव्यास

ऋषि कौन हैं, कैसे हैं, कहाँ रहते हैं, यह हम नहीं जानते फिर भी “ऋषि” शब्द का उच्चारण करते ही हृदय श्रद्धानत हो जाता है। ज्ञानी, विद्वान, सहज, सरल और तेजस्वी व्यक्तित्व की छवि मनःपटल पर अनुभूत होता है। भारतीय धर्म ग्रंथों में ऋषि, राजर्षि, महर्षि, देवर्षि और ब्रह्मा ऋषि जैसे विशेष शब्दों का बहुत उपयोग हुआ है। इसलिए इन विशेष शब्दों या उपाधि की पृष्ठभूमि को समझना होगा।

ऋषित्येव गतौ धातु: श्रुतौ सत्ये तपस्यथ्।

एतत् संनियतस्तस्मिन् ब्रह्ममणा स ऋषि स्मृत:॥

इस श्लोक के अनुसार ‘ऋषि’ धातु के चार अर्थ होते हैं- गति, श्रुति, सत्य तथा तपस। ब्रह्माजी द्वारा जिस व्यक्ति में ये चारों वस्तुएँ नियत कर दी जाएं, वही ‘ऋषि’ होता है।

भारतीय संस्कृति में ऋषियों का स्थान सर्वोपरि है। ऋषि कौन हैं? यास्क के निरुक्त में “ऋषि” शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत की ‘दृश्’ धातु (देखना या जानना) के साथ-साथ ‘ऋष्’ धातु (“जाना”) से बताई गई है। जो सूक्ष्म अर्थों को देखता (जानता) है वह ऋषि है। ऋषि शब्द की एक और प्रसिद्ध परिभाषा है “ऋषयो मन्त्रद्रष्टारः” अर्थात् ऋषि मंत्रद्रष्टा हैं। ऋषि वैदिक मन्त्रों के द्रष्टा हैं। उणादि सूत्र और पाणिनीय व्याकरण के अनुसार ‘ऋषि’ शब्द ‘ऋष्’ धातु (“जाना” या “जानना”) से उत्पन्न है और इसका शाब्दिक अर्थ है “वह जो जानता है”।

वैदिक संज्ञाओं के एक प्रसिद्ध व्युत्पतिकार एवं वैयाकरण श्री दुर्गाचार्य यास्क की निरुक्ति है- ऋषिर्दर्शनात्। इस निरुक्त से ऋषि का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है – दर्शन करने वाला, तत्त्वों की साक्षात अपरोक्ष अनुभूति रखने वाला विशिष्ट पुरुष। यास्क का कथन है – ‘साक्षात्कृतधर्माण ॠषयो बभूअ:’ अर्थात निरुक्ति का प्रतिफलितार्थ है। दुर्गाचार्य का कथन है कि किसी मन्त्र विशेष की सहायता से किये जाने पर किसी कर्म से किस प्रकार का फल परिणत होता है, ऋषि को इस तथ्य का पूर्ण ज्ञान होता है।

तैत्तिरीय आरण्यक के अनुसार ऋषि शब्द की व्याख्या इस प्रकार है- “सृष्टि के आरम्भ में तपस्या करनेवाले अयोनिसंभव व्यक्तियों के पास स्वयंभू ब्रह्म (वेदब्रह्म) स्वयं प्राप्त हो गया। वेद का इस स्वत: प्राप्ति के कारण, स्वयमेव आविर्भाव होने के कारण ही ऋषि का ‘ऋषित्व’ है।” इस व्याख्या में ऋषि शब्द की निरुक्ति ‘तुदादिगण ऋष गतौ’ धातु से मानी गई है। अपौरुषेय वेद ऋषियों के ही माध्यम से विश्व में आविर्भूत हुआ और ऋषियों ने वेद के वर्णमय विग्रह को अपने दिव्य श्रोत्र से श्रवण किया, इसीलिए वेद को ‘श्रुति’ भी कहा गया है। आदि ऋषियों की वाणी के पीछे अर्थ दौड़ता-फिरता है। ऋषि अर्थ के पीछे कभी नहीं दौड़ते ‘ॠषीणां पुनराद्यानां वाचमर्थोऽनुधावति:’ (उत्तर रामचरित, प्रथम अंग)। निष्कर्ष यह है कि तपस्या से पवित्र अंतर्ज्योति सम्पन्न मन्त्रद्रष्टा व्यक्तियों की ही संज्ञा ऋषि है।

सामान्यत: वेद के मन्त्रदृष्टा ऋषि कहलाते थे। वेद, ज्ञान का प्रथम प्रवक्ता ; परोक्षदर्शी, दिव्य दृष्टि वाला, जिनमें ज्ञान के द्वारा मंत्रों को अथवा संसार की चरम सीमा को देखने की शक्ति होती थी, उन्हें ऋषि माना जाता था।

रत्नकोष में भी कहा गया है –

सप्त ब्रह्मर्षि-देवर्षि-महर्षि-परमर्षय:। काण्डर्षिश्च श्रुतर्षिश्च राजर्षिश्च क्रमावरा:।।

अर्थात ब्रह्मर्षि, देवर्षि, महर्षि, परमर्षि, काण्डर्षि, श्रुतर्षि, राजर्षि ये सातों क्रम से अवर हैं। यथा – व्यास (महर्षि), भेल (परमर्षि), कण्व (देवर्षि), वसिष्ठ (ब्रह्मर्षि), सुश्रुत (श्रुतर्षि), ऋतुपर्ण (राजर्षि), जैमिनि (काण्डर्षि)।

संक्षेप में ऋषि वह व्यक्ति है, जिसने मन्त्र के स्वरूप को यथार्थ रूप में समझा है। ‘यथार्थ’ ज्ञान प्राय: चार प्रकार से होता है : 1) परम्परा के मूल पुरुष होने से, 2) उस तत्त्व के साक्षात दर्शन से, 3) श्रद्धापूर्वक प्रयोग तथा साक्षात्कार से और 4) इच्छित (अभिलषित)-पूर्ण सफलता के साक्षात्कार से। अतएव इन चार कारणों से मन्त्र-सम्बन्धित ऋषियों का निर्देश ग्रन्थों में मिलता है।

जैसे – कल्प के आदि में सर्वप्रथम इस अनादि वैदिक शब्द-राशि का प्रथम उपदेश ब्रह्माजी के हृदय में हुआ और ब्रह्माजी से परम्परागत अध्ययन-अध्यापन होता रहा, जिसका निर्देश ‘वंश ब्राह्मण’ आदि ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। अत: समस्त वेद की परम्परा के मूल पुरुष ब्रह्मा हैं। इनका स्मरण परमेष्ठी प्रजापति ऋषि के रूप में किया जाता है। इसी परमेष्ठी प्रजापति की परम्परा की वैदिक शब्दराशि के किसी अंश के शब्द तत्त्व का जिस ऋषि ने अपनी तपश्चर्या के द्वारा किसी विशेष अवसर पर प्रत्यक्ष दर्शन किया, वह भी उस मन्त्र का ऋषि कहलाया। उस ऋषि का यह ऋषित्व शब्दतत्त्व के साक्षात्कार का कारण माना गया है। इस प्रकार एक ही मन्त्र का शब्दतत्त्व-साक्षात्कार अनेक ऋषियों को भिन्न-भिन्न रूप से या सामूहिक रूप से हुआ था। अत: वे सभी उस मन्त्र के ऋषि माने गए हैं।

कल्प ग्रन्थों के निर्देशों में ऐसे व्यक्तियों को भी ऋषि कहा गया है, जिन्होंने उस मन्त्र या कर्म का प्रयोग तथा साक्षात्कार अति श्रद्धापूर्वक किया है। वैदिक ग्रन्थों विशेषतः पुराण-ग्रन्थों से यह भी पता लगता है कि जिन व्यक्तियों ने किसी मन्त्र का एक विशेष प्रकार के प्रयोग तथा साक्षात्कार से सफलता प्राप्त की है, वे भी उस मन्त्र के ऋषि माने गए हैं।

सप्तर्षि

ऋषियों के साथ सात की संख्या का संबंध है। यहाँ तक कि संस्कृत भाषा में ‘ऋषि’ शब्द सात की संख्या का भी वाचक है। इसका कारण है वैदिक वाङमय में सात ऋषियों की प्रसिद्धि। इन सात ऋषियों को “सप्तर्षि” कहा जाता है। आकाश में तारामण्डल को भी सप्तर्षि कहा जाता है। सप्तर्षियों का प्रथम उल्लेख ऋग्वेद की शाकल संहिता के चतुर्थ मण्डल में प्राप्त होता है। ‘सप्तर्षि’ शब्द का ऋग्वेद, शुक्ल-यजुर्वेद, कृष्ण-यजुर्वेद, और अथर्ववेद की संहिताओं के अनेक मन्त्रों में उल्लेख है। इस प्रकार यह सिद्ध है कि सप्तर्षियों का महत्त्व वैदिक काल से ही है।

शुक्ल-यजुर्वेद के शतपथ ब्राह्मण में सात ऋषियों के नाम एक रहस्यमयी शैली में प्राप्त होते हैं। “ये दोनों कान ही गौतम और भारद्वाज हैं, ये दोनों नेत्र ही विश्वामित्र और जमदग्नि हैं, ये दोनों नासिका-रन्ध्र (नथुने) ही वसिष्ठ और कश्यप हैं, वाक् (जिह्वा) ही अत्रि हैं।” इस प्रकार सप्तर्षियों को दो कान, दो आँख, दो नथुने, और एक जीभ कहा गया है। ये मनुष्य की ज्ञानेन्द्रियां हैं। इस प्रकार जो अंग जानते हैं वे हमारे शरीर के ऋषि हैं। यह “जो जानता है वह ऋषि है” इस व्याख्या से संगत है। पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार अत्रि, वसिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम,  जमदग्नि, कश्यप, और भारद्वाज वर्त्तमान वैवस्वत मन्वन्तर के सप्तर्षि हैं। यजुर्वेदीय संध्या विधि के अनुसार सप्त व्याहृतियों – भूः, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः, और सत्यम् – के क्रमशः विश्वामित्र, जमदग्नि, भरद्वाज, गोतम, अत्रि, वसिष्ठ, और कश्यप ऋषि हैं।

इसी तरह अर्वावसु, कश्यप, दधीचि, भारद्वाज, भृगु, कृप, अष्टावक्र, गौतम, दमन, मंकणक, मार्कण्डेय, अत्रि, च्यवन, देवशर्मण, रुचीक, लिखित, शुक्र, और्व, जाजलि, नारद, लोमश, वसिष्ठ, व्यास, पुलस्त्य, विश्वामित्र, वैशम्पायन आदि को एकल ब्रम्हऋषि माना जाता है।

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ऋषि – एक अवस्था

संक्षेप में कहा जाए तो ऋषि वह है जो हम संसारी लोगों की दृष्टि से परे जो संसार है और उस संसार के कर्ता का दिग्दर्शन करता है…और हमसे अतिशय प्रेम के कारण उन अनुभूतियों को हमसे बांटता है, हमें वह पद्धति बताता है जिससे हमारा परम कल्याण हो…।

ऋषि, राजर्षि, महर्षि, देवर्षि, ब्रह्मर्षि आदि को वैदिक काल के ऋषियों की भिन्न-भिन्न अवस्था मानी जा सकती है। ऋषि, महर्षि और ब्रह्मर्षि यह तीन अवस्था उत्तरोत्तर गुण संवर्धित अवस्था पर आधारित हैं, जबकि राजर्षि और देवर्षि दोनों जन्म अथवा कर्म पर आधारित होगी। अपितु इसे पदवी नहीं बल्कि उपाधि मानना अधिक युक्तिसंगत प्रतीत होता है।

ब्रह्मर्षि, राजर्षि, देवर्षि

ब्रह्मर्षि में “ब्रह्म” शब्द जुड़ा है अर्थात जिसने स्वयं ब्रह्म अवस्था को प्राप्त कर लिया है, वे ब्रह्मर्षि हैं। हमारी संस्कृति में ब्रम्हऋषि को संन्यास मार्ग का सबसे बड़ा ऋषि माना जाता है।

देवर्षि और राजर्षि पुरातन काल में क्षत्रिय ऋषि को कहा जाता होगा। देवर्षि शब्द भी केवल नारद के लिए उपयोग में लिया गया है। ऋषित्व की अवस्था प्राप्त करके देव समाज में स्वयं का कार्यक्षेत्र सम्भाला था, संभवतः इसलिए वे देवर्षि कहलाए। और संभवतः सभी उपाधि जन सामान्य ने ही दी होनी चाहिए। जैसे कि आज भागवत कथा कर रहे वक्ता को व्यास कहा जाता है और वह जहां से कथा करता है उस स्थान को व्यासपीठ।

इसी तरह भारतीय संस्कृति में राजर्षि (राजा+ऋषि) ऐसे राजा को कहते हैं जो ऋषि (विद्वान) भी हो। दूसरे शब्दों में, वह ऋषि जो राजवंश या क्षत्रिय कुल का हो। जैसे, – राजर्षि विश्वामित्र, राजर्षि जनक। ऋग्वेद में प्राय: पूर्ववर्ती गायकों एवं समकालीन ऋषियों का उल्लेख है। प्राचीन रचनाओं को उत्तराधिकार में प्राप्त किया जाता था एवं ऋषि परिवारों द्वारा उनको नया रूप दिया जाता था। नि:संदेह ऋषि वैदिककालीन कुलों, राजसभाओं तथा सम्भ्रांत लोगों से सम्बन्धित होते थे। कुछ राजकुमार भी समय-समय पर ऋचाओं की रचना करते थे, उन्हें राजन्यर्षि कहते थे। आजकल उसका शुद्ध रूप राजर्षि है। मंत्र रचना के क्षेत्र में कुछ महिलाओं ने भी ऋषिपद प्राप्त किया था।

आधुनिक युग में राजर्षि

स्वामी विवेकानन्द की शिष्या भगिनी निवेदिता अपनी पुस्तक “रिलीजन एंड धर्मा” में लिखती हैं, “राजा हो तो जनक जैसा और भिक्षार्थी हो तो शुकदेव जैसा। राजा का भी आदर्श उपभोग शून्य स्वामी, विदेही जनक का है। राजा हो या योगी, सबका ध्येय एक- नर से नारायण बनाना।“

आधुनिक युग में अब मुनि, योगी, सन्त आदि को ऋषि शब्द के पर्यायवाची माना जाता है। समय के साथ बदले शब्दों, उपाधियों और निहितार्थ के अनुसार वर्तमान को भी देखना चाहिए। वैदिक परम्परा के बाद देश के सभी राज्यों में भिन्न-भिन्न भाषाओं में अनगिनत संतों ने ईश्वरनुभूति की और उस अनुभव के आधार पर संसार की नश्वरता, ईश्वर का साक्षात्कार और इस जम्बू द्वीप में अपने जीवन के लक्ष्य को जानने और जनवाने के लिए उन्होंने अथक परिश्रम किया। इस परम्परा में एक ओर हम भगवान बुद्ध, वर्धमान महावीर, गुरु गोरखनाथ, आदि शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, माध्वाचार्य, निम्बकाचार्य, चैतन्य महाप्रभु आदि को देखते हैं, वहीं दूसरी ओर संत कबीर, संत ज्ञानेश्वर, संत नामदेव, गुरु नानक देव, गोस्वामी तुलसीदास, संत सूरदास, संत तुकाराम, समर्थ रामदास, संत तिरुवल्लूवर, श्रीमत शंकरदेव आदि दिखाई देते हैं। इसी तरह भगवान बसवेश्वर, गुरु गोविन्द सिंह, छत्रपति शिवाजी महाराज आदि ने आध्यात्मिक अनुभूति से सम्पन्न महापुरुष होते हुए भी धर्म और देश की रक्षा के लिए भारतीय समाज को संगठित, शक्ति-सम्पन्न और ध्येयवान बनाने में अभूतपूर्व योगदान दिया।

18वीं शताब्दी से 21 शताब्दी के बीच जो सामाजिक और धार्मिक क्रांति हुई उसमें ठाकुर श्रीरामकृष्ण परमहंस-स्वामी विवेकानन्द, स्वामी विवेकानन्द-भगिनी निवेदिता, भगिनी निवेदिता-योगी अरविन्द, वीर सावरकर-नेताजी सुभाषचंद्र बोस, महात्मा गांधी-आचार्य विनोबा भावे, श्री गुरुजी गोलवलकर-श्री एकनाथजी रानडे का कार्य अमूल्य है। अब राजर्षि का मायने भी बदल गए हैं। लोकतंत्र है और जिनका जनता चयन करती है वे जन प्रतिनिधि होते हैं। शीर्ष जन प्रतिनिधि ही प्रधानमंत्री होता है। इस समय भारत की राजकीय बागडोर प्रधनमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी सम्भाल रहे हैं।

सन 2014 से अबतक जो भारत में जागरण और परिवर्तन का जो दृश्य दिखाई दे रहा है वह प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार श्री अजित डोवाल के कारण है। अब इस कड़ी में केन्द्रीय गृहमंत्री श्री अमित शाह का नाम जुड़ जाए तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है। धारा 370 हटाने, तीन तलाक के नियम की समाप्ति, उनके कार्यकाल में श्रीराम जन्मभूमि पर अपने पक्ष में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आना और अब नागरिकता संशोधन विधेयक का पारित होना यह अपनेआप में अभूतपूर्व और अद्वितीय है। सभी कार्य भारत को सशक्त, सुरक्षित और गौरवान्वित करने की दृष्टि से हो रहे हैं। अपने स्वार्थ को त्याग कर मेरा देश, मेरा धर्म, मेरा कर्तव्य, मेरा दायित्व यह भाव लेकर जब व्यक्ति कार्य करता है तो वह कार्य कल्याणकारी होता है। आइए इस पद को याद रखें और उसके अनुसार देशहित में अपनी भूमिका निभाएं – ऋषि-मुनियों की संतति हम हैं, उच्चादर्श हमारा।   

– लखेश्वर चंद्रवंशी ‘लखेश’,