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डॉ. भीमराव रामजी आम्बेडकर : जीवन कार्य 

डॉ. बाबा साहब आम्बेडकर समग्र मानव जाति के अस्तित्व के संघर्ष के लिए समर्पित राजनेता, उत्कृष्ट समाज सेवी, चिन्तक, तेजस्वी वक्ता, कानून विशेषज्ञ, विख्यात अर्थशास्त्री और इन सबसे बढ़कर एक प्रखर राष्ट्रभक्त थे। निश्चित रूप से मानना पड़ेगा कि भयंकर गरीबी और अभावों में एक अस्पृश्य परिवार में जन्मा बालक भारत का विधि विधाता बन गया, यह चमत्कार से कम नहीं था। परन्तु इस चमत्कार के पीछे था एक संघर्षमय जीवन, एक दृढ़ निश्चय। स्वयं गरीबी में जन्मे लेकिन अस्पृश्यों के अपरिमित दुखों को देखकर वे इस व्यवस्था के विरोध में संघर्ष करने के लिए खड़े हो गए। 

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दलितों के मसीहा, संविधान निर्माता, बाबा साहब आदि अनेकों विशेषणों से सम्बोधित किए जानेवाले डॉ. भीमराव रामजी आम्बेडकर का जन्म मध्य प्रदेश के महू में 14 अप्रैल, 1891 को हुआ। भीमराव, रामजी मालोजी सकपाल और भीमाबाई की चौदहवीं संतान थे। वे हिन्दू महार जाति से संबंध रखते थे। उनके पिता भारतीय सेना में सेवारत थे। पिता की स्वानिवृति के बाद उनका परिवार महाराष्ट्र के सतारा में चला गया। उनका बचपन परिवार के अत्यंत संस्कारी एवं धार्मिक वातावरण में बीता था। उनके घर में रामायण, पाण्डव प्रताप, ज्ञानेश्वरी व अन्य संत वांग्मय के नित्य पाठन होते थे, जिसके कारण उन्हें श्रेष्ठ संस्कार मिले। कालान्तर में उनका परिवार मुम्बई में जाकर बस गया। यहीं उन्होंने शिक्षा ग्रहण की। वर्ष 1906 में मात्र 15 वर्ष की आयु में उनका विवाह नौ वर्षीय रमाबाई से कर दिया गया।

शिक्षा :

वर्ष 1908 में उन्होंने बारहवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की। विद्यालय की शिक्षा पूर्ण करने के बाद उन्होंने बॉम्बे के एल्फिनस्टोन कॉलेज में दाखिला लिया। उन्हें वड़ोदरा के महाराज सयाजीराव गायकवाड़ से 25 रुपये मासिक की स्कॉलरशिप मिलने लगी थी। वर्ष 1912 में उन्होंने राजनीति विज्ञान व अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि ली। इसके बाद उच्च शिक्षा के लिए वह अमेरिका चले गए। वर्ष 1916 में उन्हें उनके एक शोध के लिए पीएचडी से सम्मानित किया गया। इसके बाद वह लंदन चले गए, किन्तु उन्हें बीच में ही लौटना पड़ा। आजीविका के लिए इस समयावधि में उन्होंने कई कार्य किए। वह मुम्बई के सिडनेम कॉलेज ऑफ कॉमर्स एंड इकोनोमिक्स में राजनीतिक अर्थव्यवस्था के प्राध्यापक भी रहे। इसके पश्चात एक बार फिर वह इंग्लैंड चले गए। वर्ष 1923 में उन्होंने अपना शोध रुपये की समस्याएं’ पूरा कर लिया। उन्हें लंदन विश्वविद्यालय द्वारा डॉक्टर ऑफ साइन्स की उपाधि प्रदान की गई। उन्हें ब्रिटिश बार में बैरिस्टर के रूप में प्रवेश मिल गया। स्वदेश वापस लौटते हुए भीमराव आम्बेडकर तीन महीने जर्मनी में रुके और बॉन विश्वविद्यालय में  उन्होंने अपना अर्थशास्त्र का अध्ययन जारी रखा। उन्हें  8 जून, 1927 कोलम्बिया विश्वविद्यालय द्वारा पीएचडी प्रदान की गई।

बहुआयामी आम्बेडकर :

डॉ. बाबा साहब आम्बेडकर समग्र मानव जाति के अस्तित्व के संघर्ष के लिए समर्पित राजनेता, उत्कृष्ट समाज सेवी, चिन्तक, तेजस्वी वक्ता, कानून विशेषज्ञ, विख्यात अर्थशास्त्री और इन सबसे बढ़कर एक प्रखर राष्ट्रभक्त थे। निश्चित रूप से मानना पड़ेगा कि भयंकर गरीबी और अभावों में एक अस्पृश्य परिवार में जन्मा बालक भारत का विधि विधाता बन गया, यह चमत्कार से कम नहीं था। परन्तु इस चमत्कार के पीछे था एक संघर्षमय जीवन, एक दृढ़ निश्चय। स्वयं गरीबी में जन्मे लेकिन अस्पृश्यों के अपरिमित दुखों को देखकर वे इस व्यवस्था के विरोध में संघर्ष करने के लिए खड़े हो गए।

उन्होंने ‘बहिष्कृत हितकारिणी सभा’ की स्थापना की और इसी के साथ ही दलितों तथा अछूतों के अधिकारों के लिये संघर्ष की लंबी शृंखला प्रारम्भ हो गई। महाड़ में चावदार तालाब से पानी पीने के अधिकार पर आन्दोलनरत डॉ.आम्बेडकर ने प्रश्न उठाया कि जिस तालाब से कुत्ते, बिल्ली, गधे, घोड़े पानी पी सकते हैं, वहां से एक विशेष जाति का मनुष्य पानी नहीं ले सकता, यह कैसी परम्परा है? इसी प्रकार अस्पृश्यों के काला राम मंदिर में प्रवेश को लेकर चले आन्दोलन में हिन्दू समाज को झकझोरते हुए डॉ.आम्बेडकर ने कहा, “मंदिर सार्वजनिक पूजा के स्थान होते हैं। उनसे समूचे हिन्दू समाज की भावना जुड़ी है तब उसमें कुछ हिन्दू प्रवेश करें और कुछ के लिए प्रवेश वर्जित हो, यह बात गले नहीं उतरती। हिन्दू धर्म केवल सवर्णों के लिये नहीं हो सकता, वह तो अछूतों और सवर्णों दोनों के लिए है फिर यह भेदभाव कैसा?”

आजीवन वह दलितों अस्पृश्यों के राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक अधिकारों के लिए संघर्षरत रहे और जब बाबा साहब की अध्यक्षता वाली संविधान निर्मात्री परिषद ने २७ अप्रैल, १९४९ को घोषणा की कि ‘‘सम्पूर्ण भारतवर्ष के अन्दर अस्पृश्यता किसी भी रूप में समाप्त की जाती है और यदि किसी भी प्रकार की अयोग्यता को बलात लाया गया तो दण्डनीय अपराध जाना जाएगा।” तो मानो हजारों वर्षों के पश्चात भारत के इतिहास के सामाजिक पृष्ठ का काला अक्षर सदैव के लिये मिट गया।

यद्यपि बाबा साहब ने हिन्दू धर्म में व्याप्त अस्पृश्यता से दुखी होकर हिन्दू धर्म छोड़ने की घोषणा कर दी थी, फिर भी उनमें बदले की भावना लेशमात्र न थी और वे हिन्दू धर्म तथा देश के प्रति अपना दायित्व समझते थे। वे स्वयं कहते थे, ‘‘यदि वे इस्लाम धर्म स्वीकार करते हैं तो मुसलमानों की संख्या इस देश में दूनी हो जाएगी और मुस्लिम प्रभुत्व का खतरा भी पैदा हो जाएगा। यदि वे ईसाई धर्म स्वीकार करते हैं तो ईसाइयों की संख्या अधिक बढ़ जाएगी और इससे भारत में ब्रिटिश प्रभुत्व सुदृढ़ हो जाएगा।” इस प्रकार डॉ.आम्बेडकर ने अपने धर्मांतरण में भी राष्ट्रभक्ति का परिचय दिया और 14 अक्टूबर, 1956 को विजयादशमी के दिन बौद्धमत का वरण किया। इस समारोह में उन्होंने कहा कि, “अस्पृश्यता के बारे में महात्मा गांधी से मेरा तीव्र मतभेद था, किन्तु मैंने एक बार वचन दिया था कि समय आने पर इस देश को न्यूनतम हानि का मार्ग अपनाऊंगा। अब बौद्धमत अपनाकर मैंने अपना वचन पालन किया है। देश के लिए मेरी यही सेवा है। बौद्धमत भारतीय संस्कृति का ही एक अविभाज्य अंग है। मतांतरण करने से इस देश की संस्कृति, इतिहास, परम्परा को किसी प्रकार की हानि न हो, इस बात पर मैंने तमाम सावधानियां बरती हैं।”

वास्तव में डॉ.आम्बेडकर किसी वर्ग विशेष के नेता न थे। वे सम्पूर्ण भारतवर्ष के और सारी मानवता के पथ प्रदर्शक थे। परन्तु आज अज्ञानतावश और कुछ लोगों ने राजनीतिक स्वार्थवश डॉ.आम्बेडकरजी जैसे महान् व्यक्तित्व को एक छोटे दायरे में बांध दिया है, जो उचित नहीं है। अपमान और कष्ट का जीवन झेलते हुए कुछ नाराजगी भरे शब्द मुख से निकलना अस्वाभाविक तो नहीं था, उन शब्दों को सुनकर ऊंची कही जानेवाली जातियों को नाराज नहीं होना चाहिए, परन्तु उसका यह भी अर्थ नहीं है कि जिन बातों से समाज की आपस की दूरी बढ़नेवाली है, उन्हीं शब्दों को बार-बार लिखा व बोला जाए। जो कुछ समाज में जोड़ने के लिए आवश्यक है उन बातों को विशेष रूप से सामने लाने से ही डॉ.साहब का स्वप्न पूरा हो सकेगा। वास्तव में बाबासाहेब जैसे महान व्यक्ति पूर्ण समाज के हित को लक्ष्य रखकर कार्य करते हैं। समाज की वर्तमान स्थिति को देखकर समाजहित पर आधारित पद्धति अपनाते हैं। उस समय समाज इतना तमस में था कि उन्होंने उन्हें फटकार लगाते हुए संघर्ष का मार्ग अपनाया और समाज को जगाया। लेकिन जब परिस्थिति बदल जाती है तब ऐसे महान पुरुष के हेतु को ध्यान में रखकर योग्य पद्धति अपनाने की आवश्यकता है। नहीं तो कालबाह्य नीति अपनाने से समाज में विद्वेष फैलता है। ऐसा करने से महापुरुषों के आदर्श को हम चोट पहुंचाते हैं। अतः हमारा विवेक सदा ही जाग्रत रहना चाहिए।

स्वतंत्र भारत के संविधान के सूत्रधार डॉ.भीमराव आम्बेडकर ने 14 अक्टूबर, 1956 में बौद्ध धम्म स्वीकार कर बुद्ध मत के अनुयायी बनें। डॉ.आम्बेडकर के साथ महार जाति के अनगिनत लोगों ने भी अपने को बौद्ध धम्म का अनुयायी मान लिया। डॉ.बाबासाहब आम्बेडकर ने अक्टूबर,1956 में बौद्ध धम्म स्वीकार किया और इसके लगभग 2 महीने बाद उनका निधन हो गया। बाबासाहब कुछ और वर्ष जीते तो गरीब, अनपढ़, वंचित, शोषित व पीड़ित दलित समाज को भगवान बुद्ध के संदेशों को सहजता से पहुंचा सकते थे। पर देश का दुर्भाग्य ही है कि बाबासाहब बौद्ध धम्म स्वीकारने के 2 माह के भीतर हो गया।

बुद्ध या मार्क्स :

29 नवम्बर, 1956 काठमांडू (नेपाल) के वर्ल्ड बुद्धिष्ट कोंफेरेंस में डॉ.भीमराव आम्बेडकर ने “बुद्ध या कार्ल मार्क्स” नामक ऐतिहासिक भाषण दिया। इस भाषण में बाबासाहब ने भगवान बुद्ध के पंचशील, अष्टांग मार्ग और अहिंसा व न्याय के संबंध में संकल्पना को स्पष्ट किया। यही नहीं तो उन्होंने सारी दुनिया को बता दिया कि कार्ल मार्क्स के सिद्धांत विश्व का कल्याण नहीं कर सकते। बाबासाहब ने भगवान बुद्ध के समतावादी आदर्श के सामने मार्क्स के साम्यवाद का तुलनात्मक विश्लेषण किया और बता दिया कि भगवान बुद्ध के विचार समाज का उत्थान और विश्व का कल्याण कर सकता है, न कि मार्क्स के सिद्धांत।

डॉ. भीमराव आम्बेडकर ने अपने इस भाषण में कहा, “मार्क्स बहुत आधुनिक और बुद्ध बहुत पुरातन हैं। मार्क्सवादी यह कह सकते हैं कि उनके गुण की तुलना में बुद्ध केवल आदिम व अपरिष्कृत ही ठहर सकते हैं। फिर, दो व्यक्तियों के बीच क्या समानता या तुलना हो सकती है? एक मार्क्सवादी बुद्ध से क्या सीख सकता है? बुद्ध एक मार्क्सवादी को क्या शिक्षा दे सकते हैं? फिर भी इन दोनों के बीच तुलना आकर्षक तथा शिक्षाप्रद है। इन दोनों के अध्ययन तथा इन दोनों की विचारधारा व सिद्धांत में मेरी भी रूचि है। इस कारण इन दोनों के बीच तुलना करने का विचार मेरे मन में आया। यदि मार्क्सवादी अपने पूर्वाग्रहों को पीछे रखकर बुद्ध का अध्ययन करें और उन बातों को समझें जो उन्होंने कही हैं और जिनके लिए उन्होंने संघर्ष किया, तो मुझे यकीन है उनका दृष्टिकोण बदल जाएगा। वास्तव में उनसे (मार्क्सवादी) यह आशा नहीं की जा सकती कि बुद्ध की हंसी व मजाक उड़ाने का निश्चय करने के बाद वे उनकी प्रार्थना करेंगे, परंतु इतना कहा जा सकता है कि उनको यह महसूस होगा कि बुद्ध की शिक्षाओं व उपदेशों में कुछ ऐसी बात है, जो ध्यान में रखने के योग्य और बहुत लाभप्रद है।”

डॉ.आम्बेडकर ने कहा, “बुद्ध का नाम सामान्यतः अहिंसा के सिद्धांत के साथ जोड़ा जाता है। अहिंसा को ही उनकी शिक्षाओं व उपदेशों का समस्त सार माना जाता है। उसे ही उनका प्रारंभ व अंत समझा जाता है। बहुत कम व्यक्ति इस बात को जानते हैं कि बुद्ध ने जो उपदेश दिए, वे बहुत ही व्यापक है, अहिंसा से बहुत बढ़कर हैं।”

भगवान बुद्ध के सिद्धांतों की चर्चा करते हुए आम्बेडकर ने आगे कहा, “मुक्त समाज के लिए पंथ (Religion) आवश्यक है। प्रत्येक पंथ अंगीकार करने योग्य नहीं होता। ईश्वर को पंथ (Religion) का केंद्र बनाना अनुचित है। आत्मा की मुक्ति या मोक्ष को पंथ (Religion) का केंद्र बनाना अनुचित है। पशुबलि को पंथ का केंद्र बनाना अनुचित है। वास्तविक पंथ का वास मनुष्य के हृदय में होता है, शास्त्रों में नहीं। पंथ (Religion) का केंद्र मनुष्य तथा नैतिकता होने चाहिए। यदि नहीं, तो पंथ (Religion) एक क्रूर अंधविश्वास है।” उन्होंने कहा, “पंथ का कार्य विश्व का पुनर्निर्माण करना तथा उसे प्रसन्न रखना है, उसकी उत्पत्ति या उसके अंत की व्याख्या करना नहीं। संसार में दुःख स्वार्थों के टकराव के कारण होता है और इसके समाधान का एकमात्र तरीका अष्टांग मार्ग का अनुसरण करना है।”

भगवान बुद्ध के सिद्धांतों में मानवीय गुणों के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए आम्बेडकर ने कहा, “सभी मानव प्राणी समान हैं। मनुष्य का मापदंड उसका गुण होता है, जन्म नहीं। जो चीज महत्त्वपूर्ण है, वह है उच्च आदर्श, न कि उच्च कुल में जन्म। सबके प्रति मैत्री का साहचर्य व भाईचारे का कभी भी परित्याग नहीं करना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को विद्या प्राप्त करने का अधिकार है। मनुष्य को जीवित रहने के लिए ज्ञान विद्या की उतनी ही आवश्यकता है, जितनी भोजन की। अच्छा आचारणविहीन ज्ञान खतरनाक होता है। युद्ध यदि सत्य तथा न्याय के लिए न हो, तो वह अनुचित है। पराजित के प्रति विजेता के कर्तव्य होते हैं।”

बाबासाहब कहते हैं कि भगवान बुद्ध का सिद्धांत जितना प्राचीन है उतना ही नवीन भी। उनके उपदेश बहुत व्यापक तथा गंभीर हैं। भगवान बुद्ध ने साध्य की प्राप्ति के लिए जो साधन बताए हैं, वह है पंचशील और आर्य अष्टांग मार्ग। जबकि मार्क्स के साम्यवाद के लक्ष्य का साधन हिंसाचार है। बाबासाहब ने दुःख के निराकरण के लिए पंचशील के आचरण को महत्वपूर्ण बताया। भगवान बुद्ध के पंचशील में निम्नलिखित बातें आती हैं :- 1. किसी जीवित वस्तु को न ही नष्ट करना और न ही कष्ट पहुंचाना। 2. चोरी अर्थात दूसरे की संपत्ति की धोखाधड़ी या हिंसा द्वारा न हथियाना और न उस पर कब्जा करना। 3. झूठ न बोलना। 4. तृष्णा न करना। 5. मादक पदार्थों का सेवन न करना।

अष्टांग मार्ग के तत्व इस प्रकार हैं : – 1. सम्यक दृष्टि, 2. सम्यक संकल्प, 3. सम्यक वचन, 4. सम्यक आचरण, 5. सम्यक आजीविका, 6. सम्यक परिरक्षण (प्रयत्न), 7. सम्यक स्मृति, 8. सम्यक समाधि।

आम्बेडकर ने कहा कि “इस आर्य अष्टांग मार्ग का उद्देश्य पृथ्वी पर धर्मपरायणता तथा न्यायसंगत राज्य की स्थापना करना तथा उसके द्वारा संसार के दुःख तथा विषाद को मिटाना है। प्रत्येक व्यक्ति को चाहिए कि वह इन गुणों को अपनी पूर्ण सामर्थ्य के साथ अपने व्यवहार में अपनाए। इन पर आचरण करे। यही कारण है कि इन्हें परिमिता (पूर्णता की स्थिति) कहा जाता है। यही वह सिद्धांत है, जिसे बुद्ध ने संसार में दुःख तथा क्लेश की समाप्ति के लिए अपने बोध व ज्ञान के परिणामस्वरूप प्रतिपादित किया है।”

भगवान बुद्ध और वैशाली सेनाध्यक्ष संवाद महत्त्वपूर्ण :

आम्बेडकर ने अपने इसी भाषण में वैशाली के सेनाध्यक्ष सिंहा सेनापति के साथ भगवान बुद्ध के वार्तालाप का उल्लेख किया। सिंहा ने बुद्ध से पूछा, “भगवन, अहिंसा का उपदेश देते व प्रचार करते हैं। क्या भगवन, एक दोषी को दंड से मुक्त करने व स्वतंत्रता देने का उपदेश देते व प्रचार करते हैं? क्या भगवन यह उपदेश देते हैं कि हमें अपनी पत्नियों, अपने बच्चों तथा अपनी संपत्ति को बचाने के लिए, उनकी रक्षा करने के लिए युद्ध नहीं करना चाहिए? क्या अहिंसा के नाम पर हमें अपराधियों के हाथों कष्ट झेलते रहना चाहिए। क्या तथागत उस समय भी युद्ध का निषेध करते हैं, जब वह सत्य तथा न्याय के हित में हो?”

बुद्ध ने उत्तर दिया, – “मैं जिस बात का प्रचार करता हूं व उपदेश देता हूं, आपने उसे गलत ढंग से समझा है। एक अपराधी व दोषी को दंड अवश्य दिया जाना चाहिए और एक निर्दोष व्यक्ति को मुक्त व स्वतंत्र कर दिया जाना चाहिए। यदि एक दंडाधिकारी एक-एक अपराधी को दंड देता है, तो यह दंडाधिकारी का दोष नहीं है। दंड का कारण अपराधी का दोष व अपराध होता है। जो दंडाधिकारी दंड देता है, वह न्याय का ही पालन कर रहा होता है। उस पर अहिंसा का कलंक नहीं लगता। जो व्यक्ति न्याय तथा सुरक्षा के लिए लड़ता है, उसे अहिंसा का दोषी नहीं बनाया जा सकता। यदि शांति बनाए रखने के सभी साधन असफल हो गए हों, तो हिंसा का उत्तरदायित्व उस व्यक्ति पर आ जाता है, जो युद्ध को शुरू करता है। व्यक्ति को दुष्ट शक्तियों के समक्ष आत्मसमर्पण नहीं करना चाहिए। यहां युद्ध हो सकता है, परंतु यह स्वार्थ की या स्वार्थपूर्ण उद्देश्यों की शर्तों के लिए नहीं होना चाहिए।”

आम्बेडकर कहते हैं कि बुद्ध तानाशाही का बिलकुल समर्थन नहीं करते। वे कहते हैं, “बुद्ध लोकतंत्रवादी के रूप में पैदा हुए थे और लोकतंत्रवादी के रूप में ही मरे। उनके समय में चौदह राजतंत्रीय राज्य थे और चार गणराज्य थे। वह शाक्य थे और शाक्यों का राज्य एक गणराज्य था। उन्हें वैशाली से अत्यंत अनुराग था, जो उनका द्वितीय घर था, क्योंकि वह एक गणराज्य था। उन्होंने महानिर्वाण से पूर्व अपना वर्षावास वैशाली में व्यतीत किया था। अपने वर्षावास के पूरा हो जाने के बाद उन्होंने वैशाली को छोड़कर कहीं और जाने का निश्चय किया, जैसी उनकी आदत थी। कुछ दूर जाने के बाद, उन्होंने मुड़कर वैशाली की ओर देखा और फिर आनंद से कहा, ‘तथागत वैशाली के अंतिम बार दर्शन कर रहे हैं।’ उससे पता चलता है कि इस गणराज्य के प्रति उनका कितना लगाव व प्रेम था।”

भगवान बुद्ध पूर्णतः समतावादी :

आम्बेडकर कहते हैं कि भगवान बुद्ध पूर्णतः समतावादी थे। वे बताते हैं कि एक बार बुद्ध की माँ महाप्रजापति गौतमी ने, जो भिक्षुणी संघ में शामिल हो गई थी, सुना कि बुद्ध को सर्दी लग गई है। उन्होंने उनके लिए एक गुलूबंद तैयार करना तुरंत शुरू कर दिया। इसे पूरा करने के बाद वह उसे बुद्ध के पास ले गईं और उसे पहनने के लिए कहा, परंतु उन्होंने यह कहकर इसे स्वीकार करने से इंकार कर दिया कि यदि यह एक उपहार है, तो उपहार समूचे संघ के लिए होना चाहिए, संघ के एक सदस्य के लिए नहीं। उन्होंने बहुत अनुनय-विनय की, परंतु उन्होंने (बुद्ध ने) उसे स्वीकार करने से मना कर दिया, वे बिल्कुल नहीं माने।

आम्बेडकर कहते हैं कि भिक्षु संघ का संविधान सबसे अधिक लोकतंत्रात्मक संविधान था। बुद्ध संघ के भिक्षुओं में से केवल भिक्षु थे। वह तानाशाह कभी नहीं थे। उनकी मृत्यु से पहले उनको दो बार कहा गया कि वह संघ पर नियंत्रण रखने के लिए किसी व्यक्ति को संघ का प्रमुख नियुक्त कर दें, परंतु हर बार उन्होंने यह कहकर इंकार कर दिया कि धम्म संघ का सर्वोच्च सेनापति है। उन्होंने तानाशाह बनने और तानाशाह नियुक्त करने से इंकार कर दिया। बुद्ध ने (बौद्ध) संघ में तानाशाही-विहीन साम्यवाद की स्थापना की थी। यह हो सकता है कि वह साम्यवाद बहुत छोटे पैमाने पर था, परंतु वह तानाशाही-विहीन साम्यवाद था, वह एक चमत्कार था।

आम्बेडकर कहते हैं कि साम्यवादियों की दृष्टि में धर्म (धम्म) अभिशाप है। धर्म के प्रति उनमें घृणा इतनी गहरी बैठी है कि वे साम्यवादियों के लिए सहायक धर्मों तथा जो उनके लिए सहायक नहीं हैं, उन धर्मों के बीच भी भेद नहीं करेंगे। साम्यवादी ईसाई मत के प्रति अपनी घृणा को बौद्ध धर्म तक ले गए हैं।”

आम्बेडकर ने अपने इस व्याख्यान में जोर देकर कहा, मानवता के लिए केवल आर्थिक मूल्यों की ही आवश्यकता नहीं होतीउसके लिए आध्यात्मिक मूल्यों को बनाए रखने की आवश्यकता भी होती है। स्थाई तानाशाही ने आध्यात्मिक मूल्यों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया और वह उनकी ओर ध्यान देने की इच्छुक भी नहीं है। मनुष्य का विकास भौतिक रूप के साथ-साथ आध्यात्मिक रूप से भी होना चाहिए।” आम्बेडकर कहते हैं कि भ्रातृत्व, स्वतंत्रता तथा समानता, ये तीनों तभी विद्यमान रह सकती हैं, जब व्यक्ति बुद्ध के मार्ग का अनुसरण करे।

राष्ट्र की सेवा में लगा उनका जीवन अनुकरणीय है। इस महान जीवन से वर्तमान में भी लाखों युवक समाज सेवा की प्रेरणा ग्रहण करते हैं। उनका व्यक्तित्व ऐसे प्रकाश स्तम्भ की तरह है जिसके समीप आकर सभी को दिशा मिलती है। भारत माँ के इस सच्चे सपूत को शत्-शत् प्रणाम।

– लखेश्वर चंद्रवंशी  ‘लखेश’, नागपुर