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पंडित माधवराव सप्रे के ध्येयगामी जीवन का वैचारिक अधिष्ठान  

पंडित माधवराव सप्रे भारतीय नवजागरण के पुरोधा सम्पादक-साहित्यकार के रूप में जाने जाते हैं। उन्होंने लोकमान्य तिलक की राष्ट्रीय पत्रकारिता के तेज का हिन्दी जगत में संचार करने का महान कार्य किया है। साहित्य से लेकर पत्रकारिता जगत में पंडित माधवराव सप्रेजी की सार्ध शती बड़े उत्साहपूर्वक मनाई गई।

सप्रेजी को एक प्रखर चिन्तक, मनीषी सम्पादक, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और राष्ट्रभाषा हिन्दी के विकास में योगदान देनेवाले प्रेरणापुरुष के रूप में जाना जाता है। सप्रेजी के जीवन और कार्यों का जब हम अध्ययन करते हैं तो उनके व्यक्तित्व और कार्य के अनेक विशेषताओं का हमें परिचय मिलता है। एक ओर वे प्रखर पत्रकार और स्वतंत्रता सेनानी हैं, वहीं दूसरी ओर वे अध्यात्म और राष्ट्रीयता का अध्ययन करनेवाले गम्भीर विचारक और एक समर्पित भक्त के रूप में दिखाई देते हैं। उनकी कार्यशैली की सबसे बड़ी विशेषता थी उनका विलक्षण चयन कौशल। साहित्य के क्षेत्र में हो या पत्रकारिता के, या फिर योग्य व्यक्ति के चयन की बात हो, उनका चयन कौशल अद्भुत था। अनुवाद के लिए समर्थ रामदास कृत ‘दासबोध’, तिलक रचित ‘गीता रहस्य’ और चिन्तामणि विनायक वैद्य लिखित ‘महाभारत-मीमांसा’ का चयन किया। उन्होंने अपना आदर्श बनाया लोकमान्य तिलक को और पंडित माखनलाल चतुर्वेदी का चयन कर उन्हें ‘कर्मवीर’ पत्रिका का सम्पादक बनाया। ऐसे अद्भुत योजक थे सप्रेजी। किन्तु सप्रेजी के जीवन को दिशा देनेवाले विचार कौन से थे? किन विचारों ने उनके जीवन को ध्येयगामी बना दिया, इसपर भी विचार होना प्रासंगिक है।

सप्रेजी की वैचारिक पृष्ठभूमि का आकलन करने के लिए उनके जीवन के महत्त्वपूर्ण पहलुओं को समझना होगा। मैनेजर पाण्डेय ने ‘माधवराव सप्रे का महत्त्व’ शीर्षक से लिखे अपने लेख में कहा है कि “साहित्य और राजनीति में अपने जीवन का लक्ष्य निश्चित करते समय सप्रेजी के प्रेरणास्रोत थे। मराठी के प्रसिद्ध लेखक और विचारक विष्णु शास्त्री चिपलूणकर और लोकमान्य तिलक। विष्णु शास्त्री चिपलूणकर से उन्हें जानदार भाषा में निर्भीक होकर अपने विचार व्यक्त करने की प्रेरणा मिली और तिलक से उन्होंने उग्र राष्ट्रवादी राजनीतिक दृष्टिकोण प्राप्त किया।” मैनेजर पाण्डेय के उक्त कथन के अनुसार सप्रेजी की निर्भीक पत्रकारिता में उपर्युक्त दोनों का प्रभाव तो दिखता है किन्तु कार्यशैली में ‘लोक सम्पर्क और व्यक्ति चयन’ की विशिष्ट कला उन्होंने समर्थ रामदास के ‘दासबोध’ से प्राप्त की थी।

समर्थ रामदास कहते हैं –

नरदेह हा स्वाधीन। सहसा नव्हे पराधीन।

परन्तु हा परोपकारीं झिजवून। कीर्तिरूपें उरवावा॥२५॥

अर्थात नरदेह स्वाधीन है, यह सहसा पराधीन नहीं होती। इस देह को परोपकार में लगाकर कीर्तिरूप से अमर कर देना चाहिए।

पंडित सप्रे के जीवन में यह स्वाधीनता का भाव झलकता है। उन्होंने निर्भीक जीवन व्यतीत किया और देशहित में वैचारिक क्रान्ति के लिए अपना जीवन अर्पित कर दिया।

तिलक का आदर्श   

लोकमान्य तिलक मराठी भाषा में ‘केसरी’ और अंग्रेजी में ‘मराठा’ नामक साप्ताहिक समाचार पत्र प्रकाशित करते थे। वे अपने पत्र के माध्यम से चार सूत्री कार्यक्रम – बहिष्कार, स्वदेशी, राष्ट्रीय शिक्षा और स्वराज्य आंदोलन को प्रसारित कर रहे थे।

तिलक उस काल के जननायक थे और इसलिए उन्हें ‘लोकमान्य’ कहा जाता था। उन्होंने हताश, निराश और दिशाहीन समाज में ‘सम्पूर्ण स्वाधीनता’ का भाव जगाया था और सिंहवत गर्जना के साथ उद्घोष किया, – “स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर ही रहूँगा।” तिलक के विचारों के महत्त्व को समझते हुए उसका प्रचार व्यापक रूप से होना आवश्यक था। पंडित माधवराव सप्रे समाज को जाग्रत करने के लिए हिन्दी को सबसे बड़ा शस्त्र मानते थे। अतः १९०५ में उन्होंने नागपुर में हिन्दी ग्रंथ प्रकाशन मंडली की स्थापना की। इसी मंडली के द्वारा ‘हिन्दी रंगमाला’ का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ और सप्रेजी ने ‘स्वदेशी आंदोलन और बॉयकाट’ नामक एक लम्बा निबन्ध लिखा। वर्ष १९०६ में इसका प्रकाशन हुआ। यह निबन्ध लोकमान्य तिलक के ‘केसरी’ में स्वदेशी आन्दोलन के सम्बन्ध में प्रकाशित लेखमाला के आधार पर लिखा गया था। इस पुस्तिका में स्वदेशी आंदोलन के महत्त्व तथा अंग्रेजी शासन द्वारा भारत के शोषण का विस्तार से विवेचन किया गया था। इस पुस्तक की लोकप्रियता बढ़ने लगी थी। इसने जन चेतना को झकझोरा था इसलिए अंग्रेजी शासन ने १९०९ में इस पुस्तक पर पाबंदी लगा दी।

हिन्दीभाषी क्षेत्रों में राष्ट्रीय विचारों को प्रचारित करने के उद्देश्य से पंडित माधवराव सप्रे ने १३ अप्रैल, १९०७ को साप्ताहिक ‘हिन्दी केसरी’ का प्रकाशन शुरू किया। ‘हिन्दी केसरी’ में काला पानी, देश का दुर्दैव, बाम्ब गोले का रहस्य जैसे लेख प्रकाशित हुए। ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीतियों और अत्याचारों पर प्रहार करनेवाली सम्पादकीय टिप्पणियाँ वे बड़ी प्रखरता से करते थे। सप्रेजी और हिन्दी केसरी के सम्बन्ध में राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन के इस कथन का उल्लेख करना यहाँ समीचीन होगा। वे कहते हैं, ‘‘सप्रेजी उन थोड़े से इने गिने मनुष्यों में हैं, जिन्होंने अपना सुख त्याग कर देशहित के लिए अपना जीवन समर्पण किया है। उन गिने हुए देशसेवकों में हैं, जिन्होंने मातृभाषा दूसरी होते हुए भी, हिन्दी को राष्ट्रभाषा के नाते अपनाया है।…..उनका गीता रहस्य तो बहुतों ने देखा है। वह कितनी ऊँची वस्तु है, प्राय: सब ही पढ़े-लिखे लोग जानते हैं। किन्तु जो उनके जीवन-रहस्य से परिचित हैं वे इतना और अधिक जानते हैं कि सप्रेजी का व्यक्तित्व कितने उच्च आदर्श का है। सप्रेजी का सम्बन्ध राष्ट्रीयता से प्राचीन है। वह केसरी होकर भारत में गरज चुके हैं। उनकी वाणी से कितने ही शत्रुओं के हृदय दहल चुके हैं। सप्रेजी जैसी महान आत्माओं द्वारा उसी प्रकार ‘हिन्दी केसरी’ फिर गरजेगा और राष्ट्र को आगे बढ़ावेगा।” हुआ ऐसा ही। ‘हिन्दी केसरी’ की लोकप्रियता बढ़ने लगी थी। स्वदेशी का प्रचार, विदेशी का बहिष्कार, स्वराज्य की आवश्यकता और आत्मगौरव के बोध से सम्बन्धित विचार छापे जाते थे। इस साप्ताहिक में स्वदेशी आंदोलनों और स्वतंत्रता सेनानियों का समर्थन होता था। ‘हिन्दी केसरी’ की लोकप्रियता के चलते ब्रिटिश सरकार का रोष भी बढ़ता ही गया और २२ अगस्त, १९०८ को अंग्रेजों ने सप्रेजी को गिरफ्तार कर लिया। 

सप्रेजी तीन माह नागपुर के सेन्ट्रल जेल में कैदी रहे। तब उनके बड़े भाई बाबूराव ने यह धमकी दी थी कि, “यदि मेरा भाई माफी मांग कर हवालात से बाहर नहीं आता तो मैं आत्महत्या कर लूंगा”। भाई की जिद से विवश होकर क्षमापत्र पर उन्होंने हस्ताक्षर कर दिये। क्षमा मांग कर जेल से छूटने के बाद सप्रेजी लम्बे समय तक ग्लानि की मनोदशा में रहे। इसी मनोदशा में वे एक वर्ष तक अज्ञातवास में थे। दासबोध के अनुवादित ग्रंथ की भूमिका में पंडित माधवराव सप्रेजी लिखते हैं, – “सन १९०८ के अगस्त महीने की २२वीं तारीख से नवम्बर तक नागपुर के सेन्ट्रल जेल में मेरे सार्वजनिक जीवन का कुछ भाग व्यतीत हुआ था। मैंने सरकार से क्षमा मांगकर अपनी मुक्तता प्राप्त कर ली – इस बात पर लोगों ने कुछ अनुकूल और बहुत प्रतिकूल टीका की; परन्तु उस समय मैंने अपनी ओर से कुछ उत्तर नहीं दिया। उस विषय पर मैं अब भी किसी प्रकार की चर्चा करना नहीं चाहता। इसमें संदेह नहीं कि, कारागृह से मुक्त होने के बाद, मेरे अंतःकरण की दशा बहुत चंचल, क्षुब्ध और क्लेशदायक हो गई थी; इसलिए शान्तिसुख का अनुभव करने के हेतु मुझे कुछ समय तक रायपुर में आकर अज्ञातवास का स्वीकार करना पड़ा। यहाँ एक ओर जनसमाज ने मुझे स्वदेशद्रोही, विश्वासघाती और डरपोक कहकर मेरा त्याग कर दिया और दूसरी ओर सरकार ने मुझे लवाई, अराजनिष्ठ और विद्रोहकारी जानकर अपने जासूस-गुप्त दूत- डिटेक्टिव- मेरे पीछे लगा दिए! ऐसी अवस्था में मेरी जो आन्तरिक दुर्दशा हो रही थी उसका हाल मैं ही जानता हूँ!

इस हताहत करनेवाली मनोदशा से सप्रेजी को समर्थ रामदास कृत ‘दासबोध’ ग्रंथ ने बाहर निकाला। अज्ञातवास के दौरान उन्होंने ‘दासबोध’ का पहले अध्ययन किया। इस अध्ययन से उन्होंने यह अनुभव किया कि इसका अनुवाद हिन्दी में होने पर अधिकाधिक देशवासी इससे लाभान्वित होंगे। अतः उन्होंने इस महान ग्रंथ का अनुवाद किया। 

अनुवाद के क्षेत्र में कार्य करनेवाले जानते हैं कि साहित्य के मूल भाषा से प्राप्त विचारों को अनुवादित भाषा में उसी रूप में परिणत करना होता है। एक दृष्टि से मूल लेखक की वैचारिक भावजगत से अनुवादक को एकाकार होना पड़ता है। इसके बाद ही अनुवाद सही रूप में सिद्ध होता है। साधारण हो या विशिष्ट, रचनाकार के पुस्तक का अनुवाद करने में अनुवादक के मन-मस्तिष्क में मूल लेखक के वैचारिक भाव का संचार स्वभावतः होता ही है। फिर समर्थ रामदास को भारतीय सन्त परम्परा के श्रेष्ठतम विभूति हैं और पंडित सप्रे ने समर्थ रामदास कृत ‘दासबोध’ का मराठी से हिन्दी में अनुवाद किया है। उल्लेखनीय है कि समर्थ के हितोपदेश के सम्पर्क में जो भी आता है उसके जीवन जीने के दृष्टिकोण में सकारात्मक परिवर्तन अवश्य दिखाई देते हैं। अतः समर्थ के विचारों में रमण करने के कारण सप्रेजी की कार्यशैली में वह दृष्टिकोण अवश्य देखी जा सकती है।   

यह सर्वविदित है कि ‘दासबोध’ में प्रतिपादित विचार ‘लोक कल्याण’ का है। लोक कल्याण के लिए ‘सज्जन शक्ति का निर्माण’ कर ‘धर्माधिष्ठित स्वराज्य’ को प्रतिष्ठित करने भाव इसमें निहित है। कार्य योजना, लोक सम्पर्क, वैचारिक स्पष्टता, मानवीय सदाचार के साथ ही उन सभी बातों के प्रति समर्थ रामदास ने सचेत किया है जो लोक कल्याण में बाधक हैं। इतना ही नहीं तो बाधाओं पर विजय प्राप्त करने की युक्ति भी उन्होंने बतलाई है।

महंतें महंत करावे…

          भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी नेता लोकमान्य तिलक को अंग्रेजों ने ३ जुलाई, १९०८ को राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर ६ वर्ष के बर्मा के मांडले जेल भेज दिया गया। उधर विनायक दामोदर सावरकर को कालापानी और आजीवन कारावास का दंड देकर अंदमान के सेलुलर जेल में बंद कर दिया गया। स्वतंत्रता आंदोलन नेतृत्वहीन होने चला था और आंदोलन की धार शिथिल होने लगी थी। ऐसे में पंडित माधवराव सप्रे ने स्वतंत्रता आंदोलन के लिए राष्ट्रीय चेतना का बीज बोने का निश्चय किया। ऐसा बीज जो विकसित होकर वटवृक्ष की भांति विस्तारित हो। क्या किया जाए, कार्य आगे कैसे बढ़े? तो दासबोध से प्राप्त लोक सम्पर्क और लोक संस्कार के सूत्र काम आए।        

छत्रपति शिवाजी महाराज के आध्यात्मिक गुरु समर्थ रामदास कहते हैं –

महंतें महंत करावे। युक्तिबुद्धीने भरावे।

जाणते करून विखरावे। नाना देसी। श्रीराम॥२५॥ 

अर्थात महन्त को चाहिए कि वह अन्य अनेक महन्त उत्पन्न करे और उन्हें ‘युक्ति’ तथा ‘बुद्धि’ से पूर्ण करके, ज्ञाता बनाकर, अनेक देशों में फैलावे

‘दासबोध’ के उक्त उपदेश को सप्रेजी ने अपने जीवन में साकार किया। पहले स्वयं को उच्च विचारों से सम्पन्न किया और फिर समाज में उन विचारों को प्रसारित करने के लिए ‘अनुवाद’ कार्य को अपना आधार बनाया। उन्होंने नवजागरण की प्रक्रिया को व्यापक बनाने के लिए नई विधि से कार्य शुरू किया। ज्ञान और विचार प्रसारित करने की उनकी प्रक्रिया भी अलग थी। सबसे पहले उन्होंने वर्ष १९१० दासबोध का अनुवाद किया। फिर तिलक रचित ‘गीता रहस्य’ का अनुवाद १९१५ में पूरा किया। एक सम्पादक के रूप में उन्होंने ‘महंतें महंत करावे’ की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया। स्वदेशी का प्रचार, विदेशी का बहिष्कार, स्वराज्य की प्राप्ति और भारतबोध के सन्देश को जन-मन में प्रवाहित करने के लिए समर्पित रचनाकारों की खोज में वे लग गए। पंडित माखनलाल चतुर्वेदी, पंडित द्वारका प्रसाद मिश्र, सेठ गोविन्द दास, लक्ष्मीधर वाजपेयी जैसे कवि-सम्पादक-साहित्यकारों को सप्रेजी ने तैयार किया था।

वैचारिक प्रतिभाओं को परखना, उनकी मंडली बनाना, फिर बौद्धिक क्षत्रिय के रूप में उन्हें तैयार करना, यह उनकी विशेषता थी। इस तरह एक ओर उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम के लिए समर्पित कार्यकर्ताओं का निर्माण किया, वहीं दूसरी ओर उन्होंने हिन्दी साहित्य को समृद्ध करने के लिए सुधी साहित्यकार तथा जन जागरण के लिए प्रखर पत्रकारों को गढ़ा। देशकार्य की दृष्टि से यह उनका बहुत बड़ा योगदान है। कर्मवीर का प्रकाशन सप्रेजी की प्रेरणा से हुई और उसके सम्पादक के रूप में माखनलाल चतुर्वेदी जैसा तेजस्वी सम्पादक हिन्दी जगत प्राप्त हुआ।

पंडित माखनलाल चतुर्वेदी ने वर्ष १९२७ में ‘भरतपुर हिन्दी सम्पादक सम्मेलन’ के अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा था- “आज के हिन्दी भाषा के युग को आचार्य महावीर प्रसादजी द्विवेदी द्वारा निर्मित, तथा तेज को पंडित माधवरावजी सप्रे द्वारा निर्मित कहना चाहिए।”

‘अनुभव’ सबसे महत्त्वपूर्ण   

वर्ष १९२४ के नवम्बर माह में तीन दिन ‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ का पन्द्रहवां अधिवेशन देहरादून में हुआ। इस सम्मेलन की अध्यक्षता पंडित राधाचरण गोस्वामी करनेवाले थे किन्तु किन्हीं कारणों से गोस्वामीजी नहीं आ सके। तब स्वागत समिति ने श्रेष्ठता और वरिष्ठता के आधार पर पंडित माधवराव सप्रे को सभापति बनाने का निर्णय लिया। इस सम्मेलन के आरम्भिक वक्तव्य में सप्रेजी ने राष्ट्रभाषा हिन्दी को अपने जीवन में ही सर्वोच्च आसन पर देखने की अभिलाषा व्यक्त की। सप्रेजी का मानना था कि ‘अनुभव’ ही सबसे बड़ी शक्ति है। हम कौन हैं? हम किस अवस्था में हैं और हमें कैसा बनना है? प्रत्येक देशवासी को इस बात पर विचार करना चाहिए।

इसी सम्मेलन के समापन सत्र में सभापति के रूप में पंडित सप्रे ने कहा- “जैसे नाटक के भिन्न-भिन्न पात्र रूप धर कर आते हैं और अपना कर्तव्य करके चले जाते हैं। वास्तव में, उनका मूल स्वरूप कुछ और ही होता है, परन्तु पराधीनता में आकर उनको दूसरे का कर्तव्य करना होता है। वे जिस प्रकार पराधीनता का अनुभव करते हैं, उसी प्रकार देवियों, भाइयों, आप भी इस पराधीनता का अनुभव करें, और इस बात का प्रण करें कि हम इस पराधीनता को अवश्य दूर करेंगे, इन पराधीनता की शृंखलाओं में हमको सुख नहीं मिल सकता। पराधीनता की जंजीरों को तोड़ने के लिए अनेक साधन हैं। उनमें हिन्दी भाषा का प्रचार करना एक मुख्य साधन है।” सभापति सप्रेजी का कितना महत्त्वपूर्ण और मार्मिक सन्देश था यह!

माखनलाल चतुर्वेदी ने ११ सितम्बर, १९२६ के ‘कर्मवीर’ में लिखा था, “पिछले पच्चीस वर्षों तक पं. माधवराव सप्रेजी हिन्दी के एक आधार स्तम्भ, साहित्य, समाज और राजनीति की संस्थाओं के सहायक उत्पादक तथा उनमें राष्ट्रीय तेज भरनेवाले, प्रदेश के गांवों में घूम घूम कर, अपनी कलम को राष्ट्र की जरूरत और विदेशी सत्ता से जकड़े हुए गरीबों का करुण क्रंदन बना डालनेवाले, धर्म में धंस कर, उसे राष्ट्रीय सेवा के लिए विवश करनेवाले तथा अपने अस्तित्व को सर्वथा मिटा कर, सर्वथा नगण्य बना कर अपने आसपास के व्यक्तियों और संस्थाओं के महत्त्व को बढ़ाने और चिरंजीवी बनानेवाले थे।”

राम ही कर्ता

कार्य में वे अग्रणी रहते हैं और प्रशंसा के अवसर पर सबसे पीछे दिखाई देते हैं। समर्थ रामदास कहते हैं –

मी  कर्ता  ऐसें  म्हणसी। तेणें तूं  कष्टी  होसी।

राम कर्ता म्हणतां पावसी। येश कीर्ती प्रताप॥३६॥

अर्थात यदि तू कहेगा कि मैं कर्ता हूँ तो तुझे कष्ट होगा और यदि कहेगा कि राम कर्ता है तो तू यश, कीर्ति और प्रताप पाएगा।

सप्रेजी कार्य करते चले गए पर कभी उन्होंने इसका श्रेय नहीं लिया। वे लोक प्रशंसा और आत्मप्रशंसा से दूर ही रहे। वे जानते हैं कि जो कार्य उनसे हो रहा है वह स्वयं उनका किया नहीं है, बल्कि ईश्वर उनसे करवा रहा है। वे ईश्वरीय कार्य के मात्र एक माध्यम हैं।

सप्रेजी ने अध्यात्म, राष्ट्रीयता और सामाजिक कर्तव्य का बोध कराने के लिए पत्रकारिता और साहित्य क्षेत्र में ‘मनुष्य-निर्माण’ का बहुत महान कार्य किया, फिर भी उनका नाम और उनके काम से जन सामान्य आज भी अनभिज्ञ दिखाई देते हैं। ऐसा क्यों है, इस प्रश्न की मीमांसा करते हैं तो प्रतीत होता है कि साहित्यिक क्षेत्र और शिक्षा जगत में सप्रेजी के कार्यों के प्रचार के प्रति उदासीनता रही होगी। साहित्यिक समाज नए प्रयोगों और विधाओं के क्षेत्र में आगे बढ़ता ही गया जो कि उसके लिए आवश्यक भी था। किन्तु सप्रेजी ने ‘दासबोध’ जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रंथ का अनुवाद राष्ट्र के जिस बृहद हिन्दीभाषी समाज के लिए किया था उसका प्रचार और प्रसार उस दृष्टि से हुआ न सका। इस ग्रंथ के प्रथम प्रकाशन के समय भी बहुत विलम्ब हुआ था। स्वयं सप्रेजी ने इस ग्रंथ की भूमिका में इसका उल्लेख किया था। सप्रेजी बताते हैं कि उन्होंने कई प्रकाशकों से सम्पर्क किया पर कोई भी इस अनुवादित ग्रंथ को छापने के लिए तैयार नहीं था। कोई कहता कि हमारे पास काम बहुत है इसलिए इसे ग्रंथ को छापने का समय नहीं है। कोई कहता कि “आप राजनीतिक मामलों में सरकार के संशयास्पद हैं, इसलिए आपकी लिखी पुस्तक हमारे छापखाने में छापी नहीं जा सकती।”

सप्रेजी लिखते हैं, “तीसरे ने कहा, ‘यदि आप कोई किस्सा-कहानी, उपन्यास या नाटक लिखें तो हम आपकी पुस्तकें प्रसन्नतापूर्वक प्रकाशित करेंगे और आपको उनके बदले में कुछ द्रव्य मिल जाया करेगा, क्योंकि आजकल हिन्दी में ऐसी ही पुस्तकों की छह और विक्री अधिक है’।

वर्तमान दौर में जब पंडित माधवराव सप्रेजी के योगदान की चर्चा हो रही है तो यह बहुत अच्छा संकेत है। उनके द्वारा अनुवादित ग्रंथ ‘दासबोध’, ‘गीता रहस्य’ और ‘महाभारत-मीमांसा’ का महत्त्व भी समाज तक फैलेगा। सप्रेजी द्वारा लिखी गई एक मार्मिक पुस्तक ‘जीवन-संग्राम में विजय-प्राप्ति के कुछ उपाय’ को पुनः प्रसारित किया जा सकेगा। सरल और बोधगम्य शैली में लिखा गया यह पुस्तक ‘चरित्र-निर्माण’ पर केन्द्रित है। यह पुस्तक शालेय तथा महाविद्यालयीन विद्यार्थियों की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है।

‘जीवन-संग्राम’ में विजयी होने के लिए राष्ट्र के प्रत्येक व्यक्ति को बलवान, शीलवान, बुद्धिमान और विवेकी होना होगा। गुणों को अर्जित कर सभी को अपनी क्षमताओं का विकास करना होगा। मनुष्य के विकास से ही राष्ट्र का विकास होता है। पंडित माधवराव सप्रे ने इसलिए दासबोध, गीता रहस्य और महाभारत-मीमांसा का अनुवाद किया, इसलिए उन्होंने ‘जीवन-संग्राम में विजय-प्राप्ति के कुछ उपाय’ पुस्तक लिखी। इन पुस्तकों का अध्ययन करने पर सप्रेजी के वैचारिक अधिष्ठान के महत्त्व को समझा जा सकता है।

॥जय जय रघुवीर समर्थ॥

१) माधवराव सप्रे का महत्त्व : मैनेजर पाण्डेय https://web.archive.org/

२) दासबोध (श्री समर्थ रामदास स्वामी कृत) का अनुवाद, पंडित माधवराव सप्रे, पृष्ठ ११           

३)दासबोध (श्री समर्थ रामदास स्वामी कृत) का अनुवाद, पंडित माधवराव सप्रे, भूमिका, पृष्ठ १

४) दासबोध (श्री समर्थ रामदास स्वामी कृत) का अनुवाद, पंडित माधवराव सप्रे, दसवां समास-निस्पृह का बर्ताव, पृष्ठ ३१६ 

५) दासबोध (श्री समर्थ रामदास स्वामी कृत) का अनुवाद, पंडित माधवराव सप्रे, पृष्ठ ३४  

६) दासबोध (श्री समर्थ रामदास स्वामी कृत) का अनुवाद, पंडित माधवराव सप्रे, भूमिका, पृष्ठ ३

– लखेश्वर चन्द्रवंशी ‘लखेश’

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ऋषि : अवधारणा और आदर्श

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महर्षि वेदव्यास

ऋषि कौन हैं, कैसे हैं, कहाँ रहते हैं, यह हम नहीं जानते फिर भी “ऋषि” शब्द का उच्चारण करते ही हृदय श्रद्धानत हो जाता है। ज्ञानी, विद्वान, सहज, सरल और तेजस्वी व्यक्तित्व की छवि मनःपटल पर अनुभूत होता है। भारतीय धर्म ग्रंथों में ऋषि, राजर्षि, महर्षि, देवर्षि और ब्रह्मा ऋषि जैसे विशेष शब्दों का बहुत उपयोग हुआ है। इसलिए इन विशेष शब्दों या उपाधि की पृष्ठभूमि को समझना होगा।

ऋषित्येव गतौ धातु: श्रुतौ सत्ये तपस्यथ्।

एतत् संनियतस्तस्मिन् ब्रह्ममणा स ऋषि स्मृत:॥

इस श्लोक के अनुसार ‘ऋषि’ धातु के चार अर्थ होते हैं- गति, श्रुति, सत्य तथा तपस। ब्रह्माजी द्वारा जिस व्यक्ति में ये चारों वस्तुएँ नियत कर दी जाएं, वही ‘ऋषि’ होता है।

भारतीय संस्कृति में ऋषियों का स्थान सर्वोपरि है। ऋषि कौन हैं? यास्क के निरुक्त में “ऋषि” शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत की ‘दृश्’ धातु (देखना या जानना) के साथ-साथ ‘ऋष्’ धातु (“जाना”) से बताई गई है। जो सूक्ष्म अर्थों को देखता (जानता) है वह ऋषि है। ऋषि शब्द की एक और प्रसिद्ध परिभाषा है “ऋषयो मन्त्रद्रष्टारः” अर्थात् ऋषि मंत्रद्रष्टा हैं। ऋषि वैदिक मन्त्रों के द्रष्टा हैं। उणादि सूत्र और पाणिनीय व्याकरण के अनुसार ‘ऋषि’ शब्द ‘ऋष्’ धातु (“जाना” या “जानना”) से उत्पन्न है और इसका शाब्दिक अर्थ है “वह जो जानता है”।

वैदिक संज्ञाओं के एक प्रसिद्ध व्युत्पतिकार एवं वैयाकरण श्री दुर्गाचार्य यास्क की निरुक्ति है- ऋषिर्दर्शनात्। इस निरुक्त से ऋषि का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है – दर्शन करने वाला, तत्त्वों की साक्षात अपरोक्ष अनुभूति रखने वाला विशिष्ट पुरुष। यास्क का कथन है – ‘साक्षात्कृतधर्माण ॠषयो बभूअ:’ अर्थात निरुक्ति का प्रतिफलितार्थ है। दुर्गाचार्य का कथन है कि किसी मन्त्र विशेष की सहायता से किये जाने पर किसी कर्म से किस प्रकार का फल परिणत होता है, ऋषि को इस तथ्य का पूर्ण ज्ञान होता है।

तैत्तिरीय आरण्यक के अनुसार ऋषि शब्द की व्याख्या इस प्रकार है- “सृष्टि के आरम्भ में तपस्या करनेवाले अयोनिसंभव व्यक्तियों के पास स्वयंभू ब्रह्म (वेदब्रह्म) स्वयं प्राप्त हो गया। वेद का इस स्वत: प्राप्ति के कारण, स्वयमेव आविर्भाव होने के कारण ही ऋषि का ‘ऋषित्व’ है।” इस व्याख्या में ऋषि शब्द की निरुक्ति ‘तुदादिगण ऋष गतौ’ धातु से मानी गई है। अपौरुषेय वेद ऋषियों के ही माध्यम से विश्व में आविर्भूत हुआ और ऋषियों ने वेद के वर्णमय विग्रह को अपने दिव्य श्रोत्र से श्रवण किया, इसीलिए वेद को ‘श्रुति’ भी कहा गया है। आदि ऋषियों की वाणी के पीछे अर्थ दौड़ता-फिरता है। ऋषि अर्थ के पीछे कभी नहीं दौड़ते ‘ॠषीणां पुनराद्यानां वाचमर्थोऽनुधावति:’ (उत्तर रामचरित, प्रथम अंग)। निष्कर्ष यह है कि तपस्या से पवित्र अंतर्ज्योति सम्पन्न मन्त्रद्रष्टा व्यक्तियों की ही संज्ञा ऋषि है।

सामान्यत: वेद के मन्त्रदृष्टा ऋषि कहलाते थे। वेद, ज्ञान का प्रथम प्रवक्ता ; परोक्षदर्शी, दिव्य दृष्टि वाला, जिनमें ज्ञान के द्वारा मंत्रों को अथवा संसार की चरम सीमा को देखने की शक्ति होती थी, उन्हें ऋषि माना जाता था।

रत्नकोष में भी कहा गया है –

सप्त ब्रह्मर्षि-देवर्षि-महर्षि-परमर्षय:। काण्डर्षिश्च श्रुतर्षिश्च राजर्षिश्च क्रमावरा:।।

अर्थात ब्रह्मर्षि, देवर्षि, महर्षि, परमर्षि, काण्डर्षि, श्रुतर्षि, राजर्षि ये सातों क्रम से अवर हैं। यथा – व्यास (महर्षि), भेल (परमर्षि), कण्व (देवर्षि), वसिष्ठ (ब्रह्मर्षि), सुश्रुत (श्रुतर्षि), ऋतुपर्ण (राजर्षि), जैमिनि (काण्डर्षि)।

संक्षेप में ऋषि वह व्यक्ति है, जिसने मन्त्र के स्वरूप को यथार्थ रूप में समझा है। ‘यथार्थ’ ज्ञान प्राय: चार प्रकार से होता है : 1) परम्परा के मूल पुरुष होने से, 2) उस तत्त्व के साक्षात दर्शन से, 3) श्रद्धापूर्वक प्रयोग तथा साक्षात्कार से और 4) इच्छित (अभिलषित)-पूर्ण सफलता के साक्षात्कार से। अतएव इन चार कारणों से मन्त्र-सम्बन्धित ऋषियों का निर्देश ग्रन्थों में मिलता है।

जैसे – कल्प के आदि में सर्वप्रथम इस अनादि वैदिक शब्द-राशि का प्रथम उपदेश ब्रह्माजी के हृदय में हुआ और ब्रह्माजी से परम्परागत अध्ययन-अध्यापन होता रहा, जिसका निर्देश ‘वंश ब्राह्मण’ आदि ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। अत: समस्त वेद की परम्परा के मूल पुरुष ब्रह्मा हैं। इनका स्मरण परमेष्ठी प्रजापति ऋषि के रूप में किया जाता है। इसी परमेष्ठी प्रजापति की परम्परा की वैदिक शब्दराशि के किसी अंश के शब्द तत्त्व का जिस ऋषि ने अपनी तपश्चर्या के द्वारा किसी विशेष अवसर पर प्रत्यक्ष दर्शन किया, वह भी उस मन्त्र का ऋषि कहलाया। उस ऋषि का यह ऋषित्व शब्दतत्त्व के साक्षात्कार का कारण माना गया है। इस प्रकार एक ही मन्त्र का शब्दतत्त्व-साक्षात्कार अनेक ऋषियों को भिन्न-भिन्न रूप से या सामूहिक रूप से हुआ था। अत: वे सभी उस मन्त्र के ऋषि माने गए हैं।

कल्प ग्रन्थों के निर्देशों में ऐसे व्यक्तियों को भी ऋषि कहा गया है, जिन्होंने उस मन्त्र या कर्म का प्रयोग तथा साक्षात्कार अति श्रद्धापूर्वक किया है। वैदिक ग्रन्थों विशेषतः पुराण-ग्रन्थों से यह भी पता लगता है कि जिन व्यक्तियों ने किसी मन्त्र का एक विशेष प्रकार के प्रयोग तथा साक्षात्कार से सफलता प्राप्त की है, वे भी उस मन्त्र के ऋषि माने गए हैं।

सप्तर्षि

ऋषियों के साथ सात की संख्या का संबंध है। यहाँ तक कि संस्कृत भाषा में ‘ऋषि’ शब्द सात की संख्या का भी वाचक है। इसका कारण है वैदिक वाङमय में सात ऋषियों की प्रसिद्धि। इन सात ऋषियों को “सप्तर्षि” कहा जाता है। आकाश में तारामण्डल को भी सप्तर्षि कहा जाता है। सप्तर्षियों का प्रथम उल्लेख ऋग्वेद की शाकल संहिता के चतुर्थ मण्डल में प्राप्त होता है। ‘सप्तर्षि’ शब्द का ऋग्वेद, शुक्ल-यजुर्वेद, कृष्ण-यजुर्वेद, और अथर्ववेद की संहिताओं के अनेक मन्त्रों में उल्लेख है। इस प्रकार यह सिद्ध है कि सप्तर्षियों का महत्त्व वैदिक काल से ही है।

शुक्ल-यजुर्वेद के शतपथ ब्राह्मण में सात ऋषियों के नाम एक रहस्यमयी शैली में प्राप्त होते हैं। “ये दोनों कान ही गौतम और भारद्वाज हैं, ये दोनों नेत्र ही विश्वामित्र और जमदग्नि हैं, ये दोनों नासिका-रन्ध्र (नथुने) ही वसिष्ठ और कश्यप हैं, वाक् (जिह्वा) ही अत्रि हैं।” इस प्रकार सप्तर्षियों को दो कान, दो आँख, दो नथुने, और एक जीभ कहा गया है। ये मनुष्य की ज्ञानेन्द्रियां हैं। इस प्रकार जो अंग जानते हैं वे हमारे शरीर के ऋषि हैं। यह “जो जानता है वह ऋषि है” इस व्याख्या से संगत है। पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार अत्रि, वसिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम,  जमदग्नि, कश्यप, और भारद्वाज वर्त्तमान वैवस्वत मन्वन्तर के सप्तर्षि हैं। यजुर्वेदीय संध्या विधि के अनुसार सप्त व्याहृतियों – भूः, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः, और सत्यम् – के क्रमशः विश्वामित्र, जमदग्नि, भरद्वाज, गोतम, अत्रि, वसिष्ठ, और कश्यप ऋषि हैं।

इसी तरह अर्वावसु, कश्यप, दधीचि, भारद्वाज, भृगु, कृप, अष्टावक्र, गौतम, दमन, मंकणक, मार्कण्डेय, अत्रि, च्यवन, देवशर्मण, रुचीक, लिखित, शुक्र, और्व, जाजलि, नारद, लोमश, वसिष्ठ, व्यास, पुलस्त्य, विश्वामित्र, वैशम्पायन आदि को एकल ब्रम्हऋषि माना जाता है।

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ऋषि – एक अवस्था

संक्षेप में कहा जाए तो ऋषि वह है जो हम संसारी लोगों की दृष्टि से परे जो संसार है और उस संसार के कर्ता का दिग्दर्शन करता है…और हमसे अतिशय प्रेम के कारण उन अनुभूतियों को हमसे बांटता है, हमें वह पद्धति बताता है जिससे हमारा परम कल्याण हो…।

ऋषि, राजर्षि, महर्षि, देवर्षि, ब्रह्मर्षि आदि को वैदिक काल के ऋषियों की भिन्न-भिन्न अवस्था मानी जा सकती है। ऋषि, महर्षि और ब्रह्मर्षि यह तीन अवस्था उत्तरोत्तर गुण संवर्धित अवस्था पर आधारित हैं, जबकि राजर्षि और देवर्षि दोनों जन्म अथवा कर्म पर आधारित होगी। अपितु इसे पदवी नहीं बल्कि उपाधि मानना अधिक युक्तिसंगत प्रतीत होता है।

ब्रह्मर्षि, राजर्षि, देवर्षि

ब्रह्मर्षि में “ब्रह्म” शब्द जुड़ा है अर्थात जिसने स्वयं ब्रह्म अवस्था को प्राप्त कर लिया है, वे ब्रह्मर्षि हैं। हमारी संस्कृति में ब्रम्हऋषि को संन्यास मार्ग का सबसे बड़ा ऋषि माना जाता है।

देवर्षि और राजर्षि पुरातन काल में क्षत्रिय ऋषि को कहा जाता होगा। देवर्षि शब्द भी केवल नारद के लिए उपयोग में लिया गया है। ऋषित्व की अवस्था प्राप्त करके देव समाज में स्वयं का कार्यक्षेत्र सम्भाला था, संभवतः इसलिए वे देवर्षि कहलाए। और संभवतः सभी उपाधि जन सामान्य ने ही दी होनी चाहिए। जैसे कि आज भागवत कथा कर रहे वक्ता को व्यास कहा जाता है और वह जहां से कथा करता है उस स्थान को व्यासपीठ।

इसी तरह भारतीय संस्कृति में राजर्षि (राजा+ऋषि) ऐसे राजा को कहते हैं जो ऋषि (विद्वान) भी हो। दूसरे शब्दों में, वह ऋषि जो राजवंश या क्षत्रिय कुल का हो। जैसे, – राजर्षि विश्वामित्र, राजर्षि जनक। ऋग्वेद में प्राय: पूर्ववर्ती गायकों एवं समकालीन ऋषियों का उल्लेख है। प्राचीन रचनाओं को उत्तराधिकार में प्राप्त किया जाता था एवं ऋषि परिवारों द्वारा उनको नया रूप दिया जाता था। नि:संदेह ऋषि वैदिककालीन कुलों, राजसभाओं तथा सम्भ्रांत लोगों से सम्बन्धित होते थे। कुछ राजकुमार भी समय-समय पर ऋचाओं की रचना करते थे, उन्हें राजन्यर्षि कहते थे। आजकल उसका शुद्ध रूप राजर्षि है। मंत्र रचना के क्षेत्र में कुछ महिलाओं ने भी ऋषिपद प्राप्त किया था।

आधुनिक युग में राजर्षि

स्वामी विवेकानन्द की शिष्या भगिनी निवेदिता अपनी पुस्तक “रिलीजन एंड धर्मा” में लिखती हैं, “राजा हो तो जनक जैसा और भिक्षार्थी हो तो शुकदेव जैसा। राजा का भी आदर्श उपभोग शून्य स्वामी, विदेही जनक का है। राजा हो या योगी, सबका ध्येय एक- नर से नारायण बनाना।“

आधुनिक युग में अब मुनि, योगी, सन्त आदि को ऋषि शब्द के पर्यायवाची माना जाता है। समय के साथ बदले शब्दों, उपाधियों और निहितार्थ के अनुसार वर्तमान को भी देखना चाहिए। वैदिक परम्परा के बाद देश के सभी राज्यों में भिन्न-भिन्न भाषाओं में अनगिनत संतों ने ईश्वरनुभूति की और उस अनुभव के आधार पर संसार की नश्वरता, ईश्वर का साक्षात्कार और इस जम्बू द्वीप में अपने जीवन के लक्ष्य को जानने और जनवाने के लिए उन्होंने अथक परिश्रम किया। इस परम्परा में एक ओर हम भगवान बुद्ध, वर्धमान महावीर, गुरु गोरखनाथ, आदि शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, माध्वाचार्य, निम्बकाचार्य, चैतन्य महाप्रभु आदि को देखते हैं, वहीं दूसरी ओर संत कबीर, संत ज्ञानेश्वर, संत नामदेव, गुरु नानक देव, गोस्वामी तुलसीदास, संत सूरदास, संत तुकाराम, समर्थ रामदास, संत तिरुवल्लूवर, श्रीमत शंकरदेव आदि दिखाई देते हैं। इसी तरह भगवान बसवेश्वर, गुरु गोविन्द सिंह, छत्रपति शिवाजी महाराज आदि ने आध्यात्मिक अनुभूति से सम्पन्न महापुरुष होते हुए भी धर्म और देश की रक्षा के लिए भारतीय समाज को संगठित, शक्ति-सम्पन्न और ध्येयवान बनाने में अभूतपूर्व योगदान दिया।

18वीं शताब्दी से 21 शताब्दी के बीच जो सामाजिक और धार्मिक क्रांति हुई उसमें ठाकुर श्रीरामकृष्ण परमहंस-स्वामी विवेकानन्द, स्वामी विवेकानन्द-भगिनी निवेदिता, भगिनी निवेदिता-योगी अरविन्द, वीर सावरकर-नेताजी सुभाषचंद्र बोस, महात्मा गांधी-आचार्य विनोबा भावे, श्री गुरुजी गोलवलकर-श्री एकनाथजी रानडे का कार्य अमूल्य है। अब राजर्षि का मायने भी बदल गए हैं। लोकतंत्र है और जिनका जनता चयन करती है वे जन प्रतिनिधि होते हैं। शीर्ष जन प्रतिनिधि ही प्रधानमंत्री होता है। इस समय भारत की राजकीय बागडोर प्रधनमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी सम्भाल रहे हैं।

सन 2014 से अबतक जो भारत में जागरण और परिवर्तन का जो दृश्य दिखाई दे रहा है वह प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार श्री अजित डोवाल के कारण है। अब इस कड़ी में केन्द्रीय गृहमंत्री श्री अमित शाह का नाम जुड़ जाए तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है। धारा 370 हटाने, तीन तलाक के नियम की समाप्ति, उनके कार्यकाल में श्रीराम जन्मभूमि पर अपने पक्ष में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आना और अब नागरिकता संशोधन विधेयक का पारित होना यह अपनेआप में अभूतपूर्व और अद्वितीय है। सभी कार्य भारत को सशक्त, सुरक्षित और गौरवान्वित करने की दृष्टि से हो रहे हैं। अपने स्वार्थ को त्याग कर मेरा देश, मेरा धर्म, मेरा कर्तव्य, मेरा दायित्व यह भाव लेकर जब व्यक्ति कार्य करता है तो वह कार्य कल्याणकारी होता है। आइए इस पद को याद रखें और उसके अनुसार देशहित में अपनी भूमिका निभाएं – ऋषि-मुनियों की संतति हम हैं, उच्चादर्श हमारा।   

– लखेश्वर चंद्रवंशी ‘लखेश’,