में प्रकाशित किया गया था लेख, विशेष

ध्येय-पथ के साथी आनंदजी

सुबह-सुबह घर आकर द्वार खटखटाते और कहते, “लखेश भैया, चलो भाई घूमकर आते हैं?” और फिर हम टहलने निकल जाते। एक दूसरे का हाल-चाल जानते और फिर चर्चा शुरू होती संगठन, देश, धर्म, समाज, परिवार और बहुत सी बातें। मैं अपनी हर बात उन्हें बताता और वे भी अपनी बात खुलकर कहते। वे अपने व्यवसाय के सम्बन्ध में बताते और मैं कबीर साहित्य और रामकृष्ण-विवेकानन्द भावधारा। …हममें बहुत घनिष्ठता थी। इतनी घनिष्ठता कि घंटों बैठकर हम बातें करते। नागपुर के अनेक नाश्ता सेंटर जहां हम दोनों की महफिल लगती। कई बार नियोजन करके किसी युवा को वहीं नाश्ता करने बुला लिया करते और फिर चर्चा करते – केन्द्र कार्य को कैसे बढ़ाया जाए? क्या-क्या करना चाहिए? तय किये उसे सिद्ध कैसे करें? ऐसे ध्येयनिष्ठ कार्यकर्ता और केन्द्र के विदर्भ विभाग के प्रमुख श्री आनंद कैलाश बगड़ियाजी नहीं रहे। गत 27 दिसम्बर, 2020 को उनका निधन हो गया। वे ४८ वर्ष के थे। उनके अचानक चले जाने से देशभर के उन्हें जाननेवाले, विशेषकर विदर्भ के कार्यकर्तागण अत्यन्त दुःखी हैं।

वर्ष 2004 में विवेकानन्द केन्द्र की नागपुर शाखा द्वारा आरोही वर्ग का आयोजन किया गया था। अपनी बालिका कुमारी नंदिनी को इस वर्ग में सहभागी करवाने के लिए आनंदजी पहली बार केन्द्र कार्यालय आए थे। उस दौरान संस्कार वर्ग शिक्षक के नाते मेरे पास इस वर्ग की जिम्मेदारी थी। वर्ग के समाप्त होते ही प्राणायाम और योग सत्र का आयोजन हुआ और आनंदजी इस माध्यम से केन्द्र से जुड़े।

मैंने आनंद साहब को देखा है, और कार्यकर्ता आनंदजी को भी देखा है। एक बार वैचारिक स्पष्टता होने के बाद व्यक्ति कैसे अपने को ३६० डिग्री तक बदल कर रख देता है उसका आदर्श उदाहरण आनंदजी का जीवन है। कड़ी मेहनत और व्यवस्थित नियोजन से आनंदजी ने बहुत कम आयु में अपने व्यवसाय के क्षेत्र में नाम कमाया। एक ईमानदार और उत्तम व्यक्तित्व वाले आनंदजी की समझ औरों से बहुत अधिक था। वे सबका भार अपने ऊपर ले लेते थे। उनका हृदय बहुत विशाल था। वे कार्यकर्ताओं की फिक्र करते थे, उनके दुःख-सुख में उनके साथ तन-मन-धन से खड़े होते थे। उनकी यह उपस्थिति कार्यकर्ता में विश्वास भरने के लिए पर्याप्त था कि हमारे साथ आनंदजी हैं।

उल्लेखनीय है कि आनंदजी ने प्रीमियर लॉजिस्टिक नामक कंपनी बनाई है तथा वे उसके मुखिया थे। प्रारम्भ में वे कार्य के लिए समय नहीं दे पाते थे। यह सच भी है कि ट्रांसपोर्ट का क्षेत्र बहुत जिम्मेदारीवाला होता ही है। कई बार मुझसे मिलकर कहा करते, “भैया, मैं समय निकाल नहीं पाता। मुझे बहुत दुःख होता है।“

समय नहीं निकाल पाने का उन्हें बहुत खेद होता था। कई बार बेचैन हो जाते और फिर घर मिलने आते। कभी कहीं और स्थान पर बुलाते। और फिर चर्चा होती। आनंदजी जब नागपुर के नगर प्रमुख थे तब मेरे पास सहनगर प्रमुख का दायित्व था। हमारी जोड़ी जोरदार थी – वे बिजनेस मैन और मैं महविद्यालय का छात्र। वे केन्द्र में नए थे और मैंने बचपन गुजारा था। कभी स्वामीजी की जयन्ती जैसे कार्यक्रम होता तो नगर प्रमुख के नाते उन्हें ही बोलना होता था। वे सुबह-सुबह घर आते।

“भैया, थोड़ी मेरी तैयारी करा दो न?”- आनंदजी कहते। और फिर कागज-पेन लेकर वहीं स्क्रिप्ट बना देते। पर आनंदजी का उत्साह देखिए, “केन्द्र की बात रखनी है तो उसकी तैयारी व्यवस्थित होनी चाहिए। वे पूरी तैयारी करते थे मन लगाकर।” कार्यक्रम हुआ और अगले दिन पूछते – “कैसा हुआ भैया? मैं ठीक बोल पाया कि नहीं।“ ऐसे थे आनंदजी। बेहद सरल, सहज और उन्मुक्त।              

कुछ जानने के लिए, कुछ सीखने के लिए, कुछ समझने के लिए वे सदैव तत्पर रहते थे। वे कभी संकोच नहीं करते थे और हर किसी से कुछ न कुछ सीखते, समझते और कुछ कहे बिना बहुत बार समझा जाते थे। उदाहरणार्थ – हम कार्यकर्ता किसी भी कार्यकर्ता के सम्बन्ध में नाम लेकर बोलते हैं – मंगेश, नमित, पंकज, वैदेही आदि। और आनंदजी कहते – मंगेश भैया, नमित भैया, पंकज भैया, वैदेही ताई। आयु में कितने भी छोटे कार्यकर्ता क्यों न हो, वे उनके नाम के साथ भैया और दीदी जोड़ते थे। आनंदजी कार्यकर्ताओं के गुणों की चर्चा करते थे, उन्हें प्रोत्साहित करते थे। और यह अनुभव करा देते थे कि तुम कार्य करो हम तुम्हारे साथ हैं।

एक दिन तो गजब हुआ। वे घर आए और उन्होंने देखा कि एक छोटी बच्ची ६-७ वर्ष की, बर्तन माँज रही थी। थोड़ी देर के बाद एक माँ, बड़ी बाल्टी में पानी लेकर जा रही थी और उसके साथ एक ४-५ साल की बच्ची छोटी बाल्टी लेकर अपनी माता का साथ दे रही थी। आनंदजी चारों ओर देख रहे थे। बोल पड़े, “लखेश भैया, झोपड़पट्टी (बस्ती) बोलकर लोग उपहास करते हैं लेकिन यहाँ तो शिविर चल रहा है। हर छोटी बेटी, छोटा बेटा देखो कैसे अपने माँ के काम में हाथ बंटा रहा है। सीखने लायक है। बड़े घरों में तो जवान होने के बाद भी बेटियाँ चाय तक नहीं बना पातीं।“ ऐसा कहते हुए वे गम्भीर हो गए।

मैंने कहा, “तो भैया ये उदाहरण तो मैंने नोट कर लिया है। आप भी जब अवसर मिले, बताइएगा जरूर।“ और उनके चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई।       

स्वामी विवेकानन्द सार्ध शती समारोह के समय आनंदजी ने बढ़-चढ़ कर, बहुत सक्रियता से समन्वय बनाया। संघ और संघ परिवार के विविध संगठन तथा अन्य सामाजिक मंडलों से उनका गहन सम्पर्क था। कालान्तर में जब केन्द्र के हिन्दी प्रकाशन विभाग के प्रबंध सम्पादक का दायित्व मेरे पास आया तो हमारा नित्य रूप से मिलना कम हो गया। कभी मेरा प्रवास तो कभी उनका। एक दिन अपने घर पर बुलाया और कहा, “भैया, विदर्भ में प्रवास तो चल रहा है। भारतीय संस्कृति परीक्षा भी हो गई है और शिविर भी होनेवाले हैं।“

मैंने कहा, “वाह! ये तो बहुत बढ़िया काम हो रहा है।“

वे गम्भीर हो गए और फिर बोले, “युवा सम्पर्क में आते हैं, पर उन्हें संगठन से जोड़कर रखना दुष्कर कार्य है। पहले कुछ करना था तो मैं थोड़ा निश्चिन्त हो जाता था कि नागपुर है, यहाँ तो कार्यकर्ता है ही। पर विदर्भ में काम बढ़ना है, इसलिए प्रवास करनेवाले लोग चाहिए।”

मैंने कहा, “आप सही कह रहे हैं। अपन प्रयत्न करेंगे तो हो ही जाएगा।“

वे हँसे और बोले, “शिविर है। युवा आनेवाले हैं। गीत होगा, व्याख्यान होंगे, कार्यशालाएं होंगी, कृति गीत होंगे।“ वे बोल रहे थे और उनके चेहरे पर चमक आ गई।

नाश्ता का प्लेट थमाते हुए बोले, “तो भैया, मैंने सोचा विदर्भ के कार्यकर्ताओं में चेतना फूंकनी है तो अपना ब्रम्हास्त्र चला दूँ।“

मैं हँस पड़ा, “ब्रम्हास्त्र! कौन सा ब्रम्हास्त्र?”

वे बोले, “अरे, मैं आपको बोल रहा हूँ। चलो भाई अमरावती चलना है।“

मैं हँस पड़ा, और उनसे कहा, “ब्रम्हास्त्र कहिए या अग्निमंत्र, ये तो स्वामी विवेकानन्द के विचार ही हो सकते हैं। माननीय भानुदासजी कहते हैं कि स्वामीजी को लोगों तक पहुँचाओ और बाकी काम स्वामीजी स्वयं कर लेंगे।“

ऐसा सुनते ही आनंदजी एकदम खुश हो गए, और उन्होंने मेरा हाथ कसकर पकड़ लिया। ऐसा विश्वास, ऐसा भरोसा वे हर कार्यकर्ता पर करते थे।  

विदर्भ विभाग प्रमुख के नाते वे बहुत समय देते थे। प्रवास करते थे। घंटों कार्यकर्ताओं से चर्चा करते थे। उनका सम्पर्क भी तगड़ा था। उन्होंने अपने परिवार के हर सदस्य को केन्द्र कार्य से जोड़ा था। प्रत्येक परिवार जन का कुछ न कुछ योगदान केन्द्र कार्य में होना चाहिए, ऐसा उनका मानना था और वे इसके लिए पूरा प्रयत्न करते थे।   

अपनी एक कमी को लेकर उन्हें खेद था। वे व्यक्तिगत रूप से मुझसे कहते थे, “भैया, मेरे दिमाग में बहुत से विचार चलते रहते हैं। पर जब कोई अधिकारी मुझे व्याख्यान देने के लिए कहते हैं तो पता नहीं क्या हो जाता है कि विचार रहने के बावजूद बोल नहीं पाता हूँ।“

मैंने कहा, “भैया, आपका अध्ययन और चिन्तन अधिक है। और आप मराठी, हिंदी और अंग्रेजी का एक साथ प्रयोग करते हैं। इसलिए आगे कैसे बोलूँ, इस बात को लेकर ठठक जाते होंगे।“

उन्होंने कहा, “हाँ भैया, ऐसा ही होता है। पर करे तो करें क्या?”

मैंने कहा, “कल आपको कुछ बोलना है क्या?”

उन्होंने कहा, “हाँ, कृति संकल्प का सत्र लेना है।“

मैंने कहा, “बहुत बढ़िया। क्या-क्या करणीय कार्य है? कितने समय में साध्य करना है? कैसे-कैसे करना है? कौन-कौन इस कार्य को करेगा? यही सब तो बताना होगा न?” वे मुस्कुराए। अगले दिन जब शिविर में उन्होंने यह सत्र लिया तो २५ मिनट धारा प्रवाह मराठी में बोले। शिविर समाप्त होते ही उनका हाथ पकड़ कर, मारे खुशी के मैं बोला, “भैया वाह, आज तो मजा आ गया। आपने बहुत अच्छे से और प्रभावी ढंग से बताया।“ उनके चेहरे पर संतोष का भाव था।

इसके बाद अनेक शिविरों और बैठकों में वे अपनी बात बहुत प्रभावी रीति से रखने लगे। जितना गम्भीर चिन्तन, उतना ही गम्भीर और प्रभावशाली वक्तव्य। मुझसे अनेक बार उन्होंने कहा, “भैया, विदर्भ में कम से कम एक सेवा प्रकल्प तो हर हाल में चाहिए ही। एक नागपुर और वर्धा के बीच में और एक टिमटाला (अमरावती) में। सोचता हूँ वह दिन कब आएगा?”  

‘स्वामी विवेकानन्द समग्र जीवन दर्शन’ के सम्पादन के समय जब सुबह के समय टहलने निकलते तो वे कहते, “भैया, स्वामी विवेकानन्द के जीवन के प्रेरक प्रसंग और विचारों के अमृत के दो-चार बूंदों का रसपान मुझे भी करा दिया कीजिए।“

मित्र बहुत हैं पर स्वामी विवेकानन्द की वाणी का इतना अनुरागी व्यक्ति शायद ही मेरे सम्पर्क में आया हो। चलते-फिरते, बोलते-बताते हर बार केन्द्र कार्य, कार्यकर्ता और स्वामी विवेकानन्द यही विषय होता था उनके बोलने का। उल्लेखनीय है कि आनंदजी भगवद्गीता, जीवन विकास, प्रबुद्ध भारत और केन्द्र की पत्रिकाओं को पढ़ते थे। जब भी कुछ अच्छा पढ़ने को मिलता तो वे तुरन्त सम्पर्क करते और बताते। कई बार वे कहते थे, “इस जनम में तो अध्ययन पूरा नहीं होगा। कई जनम लेने पड़ेंगे।“

अभी कोरोना काल में अंतिम बार फोन पर जब बात हुई तो वे बड़े उत्साह में थे।

मैंने कहा, “कैसे हो भैया?”

वे बोले, “पॉजिटिव्ह हूँ, कोरोना पॉजिटिव्ह। पर ये तो ठीक हो ही जाएगा। अरुणाचल चलना है अखिल भारतीय अधिकारी बैठक में। राजस्थान होकर जाओगे या यही से चलोगे?…” और वे खाँसने लगे।

मैंने कहा, “भैया, बुखार ठीक हो गया न? और अभी कैसा लग रहा है?”

उन्होंने कहा, “कफ है, खाँसते समय छाती में दर्द होता है?”

मैंने कहा, “खयाल रखिए और डॉक्टर को अवश्य दिखाइए।“

बोले, “दवाई चल रही है। ठीक हो जाएगा। नियति का खेल है।“

और कोरोना मुक्त होने के बाद सच में नियति अपना खेल, खेल गई। मस्तिष्क विकार, फिर सर्जरी के बाद उनका निधन हो गया। आज भी मेरी आँखों में, उनका खिलखिलाता चेहरा दिखता है। उनके हृदय की विशालता, सरलता और सहृदयता का स्मरण करते ही आँखें भर आती है, हृदय द्रवित हो जाता है। उनकी धर्मपत्नी किरण भाभी जो कि केन्द्र कार्य में सक्रिय है, उनके दोनों बच्चे कुमारी नंदिनी और मधुर भी वर्ग से जुड़े हैं। बगड़िया परिवार और उनके संबंधी अग्रवाल व चौधरी परिवार भी केन्द्र के शुभचिन्तक हैं। ऐसा सम्भव हो सका आनंदजी के मधुर सम्पर्कों और निरन्तर प्रयत्नों से।

राष्ट्र पुनरुत्थान के ध्येयपथ का सबसे निकटतम साथी, मित्र तथा बड़े भैया आनंदजी के जाने का दुःख है। उनके जीवन, विचारों और व्यवहार ने मेरे जैसे अनेक युवा तथा वरिष्ठ कार्यकर्ताओं को प्रेरणा दी है। सदैव हँसमुख, मिलनसार और प्रथम भेंट में ही सम्पर्कित व्यक्ति का मन जीतनेवाले – आनंदजी को विवेकानन्द केन्द्र परिवार की ओर से विनम्र श्रद्धांजलि।

– लखेश्वर चंद्रवंशी ‘लखेश’

लेखक:

डॉ. लखेश्वर चन्द्रवंशी 'लखेश' कार्यकारी सम्पादक : केन्द्र भारती, विवेकानन्द केन्द्र हिन्दी प्रकाशन विभाग, जोधपुर (राजस्थान) पूर्व सम्पादक : newsbharati.com, पूर्व सम्पादक : भारत वाणी (साप्ताहिक) कार्यकर्ता : विवेकानन्द केन्द्र कन्याकुमारी

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